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________________ 102 : प्राकृत व्याकरण 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर किच्छं रूप सिद्ध हो जाता है। तृप्तं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तिप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की इ; २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर तिप्पं रूप सिद्ध हो जाता है। कृषितः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किसिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स्'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसिओ रूप सिद्ध हो जाता है। नृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-२३१ से 'प' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवो रूप सिद्ध हो जाता है। कृत्या स्त्रीलिंग शब्द है। इसका प्राकृत रूप किच्चा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'ऋ' की 'ई'; २-१३ से 'त्य' का 'च' और २-८९ से प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च' होकर किच्चा रूप सिद्ध हो जाता है। कृतिः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-१७७ से 'त' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर किई रूप सिद्ध हो जाता है। धृतिः संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप धिई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'की 'इ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर धिई रूप सिद्ध हो जाता है। कृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२३१ से प्' का 'व्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर 'किवो' रूप सिद्ध हो जाता है। किविणो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४६ में की गई है। कृपाणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवाणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२३१ से 'प्' का 'व्' ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुसार होकर किवाणं रूप सिद्ध हो जाता हैं। वश्चिकः संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप विञ्चुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'की 'इ': २-१६ से स्वर सहित 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चुका ओदश; १-१७७ से क् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विञ्चुओ रूप सिद्ध हो जाता है। वृत्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'ई'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वित्तं रूप सिद्ध हो जाता है। वृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वित्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' ३-१९ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर वित्ती रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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