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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 103 वृत्तम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हिअंरूप सिद्ध हो जाता है। _ व्याहतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वाहित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वाहित्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
बृहितः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप बिहिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिहिओ रूप सिद्ध हो जाता है।
बृसी संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप विसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ' होकर विसी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ ऋषिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'ए' का 'स्' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' का दीर्घ स्वर ई होकर इसी रूप सिद्ध हो जाता है।
वितृष्णः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विइण्हा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-७५ से ‘ण्ण' का ‘ण्ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विइण्हो रूप सिद्ध हो जाता है।
स्पृहा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छिहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२३ से 'स्प्' का 'छ्' और १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; होकर छिहा रूप सिद्ध हो जाता है।
सकृत संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप सइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'क्' का लोप; १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर सइ रूप सिद्ध हो जाता है। . उत्कृष्टम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उक्किटुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से 'क्' का द्वित्व क्क्'; २-३४ से 'ष्ट्' का 'ठ्';२-८९ से प्राप्त 'ठ्' का द्वित्व 'ठ'; २-६० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उक्किटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
नृशंसः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निसंसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निसंसो रूप सिद्ध हो जाता है।
ऋद्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर रिद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।। १-१२८।।
पृष्ठे वानुत्तरपदे ।। १-१२९ ।। पृष्ठ शब्देऽनुत्तर पदे ऋत इद् भवति वा॥ पिट्ठी पट्ठी।। पिट्ठि परिढुविध। अनुत्तर पद इति किम्। महिवटुं।।
अर्थ-यदि पृष्ठ शब्द किसी अन्य शब्द के अन्त में नहीं जुडा हुआ हो; अर्थात् स्वतंत्र रूप से रहा हुआ हो अथवा संयुक्त शब्द में आदि रूप से रहा हुआ हो तो 'पृष्ठ' शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-पृष्ठिः पिट्ठी
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