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________________ 104 : प्राकृत व्याकरण और पट्टी। पृष्ठ-परिस्थापितम् पिट्टि परिदृवि सूत्र में अनुत्तर पद' ऐसा क्यों लिखा गया है? उत्तर-यदि 'पृष्ठ' शब्द आदि में नहीं होकर किसी अन्य शब्द के साथ में पीछे जुडा हुआ होगा तो पृष्ठ शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ' नहीं होगी। जैसे-मही-पृष्ठम् महिवट्ठ।। यहाँ पर 'ऋ' की 'इ' नहीं होकर 'अ हुआ है।। पिट्ठी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है। पृष्ठिः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पट्टी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पृष्ठ-परिस्थापितम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पिट्ठि-परिटुविअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; १-४६ से प्राप्त की 'इ':४-१६ से 'स्था' धात के स्थान पर 'ठा' का आदेश: १-६७ से 'ठा' में रहे हए'आ' का 'अ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; १-२३१ से 'प्' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिट्ठि-परिट्ठविअंरूप सिद्ध हो जाता है। महीपृष्ठम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महिवटुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'ई' की 'इ'; १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२३१ से 'प्' का ''; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर महिवटुं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१२९|| मसूण-मृगाङ्क-मृत्यु-श्रृंग-धृष्टे वा ।। १-१३०॥ एषु ऋत इद् वा भवति।। मसिणं मसण। मिअङ्को मयङ्को। मिच्चू। मच्चू। सिंङ्ग संग। धिट्ठो।। धट्ठो। अर्थः-मसृण, मृगांङ्ग, मृत्यु, श्रृंङ्ग, और धृष्ट; इन शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। तदनुसार प्रथम रूप में तो 'ऋ' की 'इ' और द्वितीय वैकल्पिक रूप में 'ऋ' का 'अ' होता है। जैसे-मसृणम्=मसिणं और मसणं। मृगांङ्क-मिअङ्को और मयङ्को।। मृत्युः मिच्चू और मच्चू।। श्रृङ्गम्=सिंङ्ग और सङ्ग।। धृष्ट-धिट्टो और धट्ठो।। ___ मसृणम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप मसिणं और मसणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से'ई और १-१२६ से'ऋ का अ:३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर क्रम से मसिणं और मसणं रूप सिद्ध हो जाते हैं। मृगांकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मिअङ्को और मयको होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मिअङ्को सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का 'अ'; १-१८० से प्राप्त 'अका 'य' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयको रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मृत्युः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मिच्चू और मच्चू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; २-१३ से 'त्य' के स्थान पर 'च्' का आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर मिच्चू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रूपवत् होकर मच्चू रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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