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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 105 श्रृंगं संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिङ्गं और सङ्गं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२६० से 'श्' का 'स्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सिङ्गं और सङ्गरूप सिद्ध हो जाते हैं।
धृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप धिटो और धट्टा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से धिट्ठो और धट्टा सिद्ध हो जाते है।।१-१३०।।
उदृत्वादौ ।। १-१३१ ।। ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद् भवति।। उऊ। परामुट्ठो। पुट्ठो। पउट्ठो। पुहई। पउत्ती। पाउसो पाउओ। भुई। पहुडि। पाहुडं। परहुओ। निहुआ निउ। विउ संवुआ वुत्तन्तो। निव्वुआ निव्वुई। वुन्दं। वुन्दावणो। वुड्डो। वुड्डी। उसहो। मुणालं। उज्जू। जामाउओ। माउओ। माउआ। भाउओ। पिउओ। पुहुवी।। ऋतु। परासृष्ट। स्पृष्ट। प्रवृष्ट। पृथिवी। प्रवृति। प्रावृष्। प्रावृत। भृति। प्रभृति। प्राभृत। परभृत। निभृत। निवृत। विवृत। संवृत। वृत्तान्त निर्वृत। निर्वृति। वृन्द। वृन्दावन। वृद्ध। वृद्धि। ऋषभ। मृणाल। ऋजु। जामातृक। मातृक। मातृका। भ्रातृका। पितृक। पृथ्वी। इत्यादि।। ___ अर्थः-ऋतु इत्यादि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' का 'उ' होता है। जैसे-ऋतुः उऊ। परामृष्ट:=परामुट्ठो। स्पृष्ट:=पुट्ठो। प्रवृष्टः-पउट्ठो। पृथिवी-पुहई । प्रवृतिः पउती। प्रावृष्= (प्रावृट्)-पाउसो। प्रावृतः पाउओ। भृतिः-भुई। प्रभृति-पहुडि। प्राभृतम् पाहुडं। परभृतः परहुओ। निभृतम् निहुआ निवृतम् निउआ विवृतम् विउ संवृतम् संवुआ वृत्तान्तः वुत्तन्तो। निर्वृत्तम निव्वुनिर्वृतिः निव्वुई। वृन्दम् वुन्दं। वृन्दावनो वुन्दावणो। वृद्धः वुड्डो। वृद्धिः=वुड्डी। ऋषभः-उसहो। मृणालम्=मुणाल। ऋजुः=उज्जू। जामातृकः-जामाउओ। मातृक: माउओ। मातृका-माउआ। भ्रातृकः भाउओ। पितृकः पिउट्ठो। पृथ्वी-पुहुवी। इत्यादि इन ऋतु आदि शब्दों में आदि 'ऋ' का 'उ' होता है; ऐसा जानना।
ऋतुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१७७ से त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर उऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
परामृष्ट: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप परामुटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परामुट्ठो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
स्पृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पुटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से आदि 'स्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रवृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पउट्ठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।
पुहई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है।
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