________________
106 : प्राकृत व्याकरण
'-..
०२१म
प्रवृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पउत्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई होकर पउत्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
पाउसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९ में की गई है।
प्रावृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पाउओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'व्' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
भृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भुई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर भुई रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रभृति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप पहुडि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ्' का 'ह'; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और १-२०६ से 'त्' का 'ड्' होकर पहुडि रूप सिद्ध हो जाता है।
प्राभृतं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पाहुडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १
' का': और १-२०६ से 'त'का 'ड':३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय क स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पाहुडं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पर भृतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप परहुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ्' का 'ह'; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परहुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
निभृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निहुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निहुअंरूप सिद्ध हो जाता है।
निवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निउअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व्' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निउअंरूप सिद्ध हो जाता है।
विवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विउअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विउअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ संवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप संवुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति;
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवुअंरूप सिद्ध हो जाता है। __वृत्तांतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वृत्तन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वृत्तन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निव्वुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'व्' का द्वित्व'व्व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org