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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 101 प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भिङ्गो रूप सिद्ध हो जाता है। 'शृंगारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिङ्गारो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिङ्गो रूप सिद्ध हो जाता है। 'श्रृंगारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिङ्गारो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर स्वर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिङ्गारो रूप सिद्ध हो जाता है। 'श्रृंगालः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिआलो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स्' और १-१७७ से 'ग्' का लोप, और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिआलो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'घृणा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घिणा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; होकर "घिणा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'घुसणं' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घुसिणं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'घुसिणं' रूप सिद्ध हो जाता है। वृद्ध-कविः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विद्धकई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'व्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर विद्धकई रूप सिद्ध हो जाता है। समिद्धिः शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। ऋद्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इद्धी हो जाता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर इद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ गृद्धि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गिद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर गिद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। __कृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स'; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसो रूप सिद्ध हो जाता है। __ कृशानुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किसाणु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसाणू रूप सिद्ध हो जाता है। __ कृसरा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किसरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; होकर किसरा रूप सिद्ध हो जाता है। कृछम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किच्छं होता है। इसमें संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-७९ से अन्त्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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