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________________ 100 : प्राकृत व्याकरण ‘कृपा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किवा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से आदि 'ऋ' की 'इ'; और १-२३१ से 'प' का 'व' होकर 'किवा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हियय होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिययं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मृष्टम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मिटुं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मिटुं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मृष्टम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मट्ट होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ में 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मटुं रूप सिद्ध हो जाता है। 'दिटुं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'दृष्टि:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिट्ठी' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ': २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठठ': २-९० से प्राप्त पर्व 'ठ' का 'ट':३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'दिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। सृष्टम्ः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सिटुं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सिटुं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'सृष्टि: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिट्ठी' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'सिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'गृष्टि' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गिट्ठी' और 'गिण्ठी' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'गिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; १-२६ से प्रथम आदि स्वर 'इ' के गे आगम रूप अनस्वार की प्राप्तिः और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'गिण्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। "पृथ्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिच्छी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-१५ से 'थ्व' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' का 'च'; होकर पिच्छी रूप सिद्ध हो जाता है। भृगुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर भिऊ रूप सिद्ध हो जाता है। • 'भृगः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिङ्गो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; ३-२ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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