________________
आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा ।। १-१२७।।
एषु आर्ऋत आद् वा भवति ।। कासा किसा । माउक्कं मउअं । माउक्कं मउत्तणं ।।
अर्थः- कृशा, मृदुक और मृदुत्वः इन शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' का विकल्प से 'आ' होता है। जैसे- कृशा - कासा और किसा।। मृदुकम्=माउक्कं और मउअं ' मृदुत्वम् - माउक्कं और मउत्तणं ।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 99
'कृशा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कासा' और 'किसा' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ९ - १२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १ - २६० से 'श' का 'स' होकर प्रथम रूप कासा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ' और शेष पूर्ववत् होकर 'किसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृदुकम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'मउअं' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउक्कं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १- १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १ - १७७ 'द्' और 'क्' का लोप और शेष पूर्व रूपवत् होकर 'मउअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
मृदुत्वं संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'मउत्तणं' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १२७ से 'ऋ' का 'आ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; २-२ से 'त्व' के स्थान पर विकल्प से 'क्' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउक्कं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र- संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २ - १५४ से 'त्व' के स्थान पर विकल्प से 'तण' का आदेश और शेष पूर्ववत् होकर 'मउत्तणं' रूप सिद्ध
जाता है ।।१ - १२७।।
इत्कृपादौ।। १-१२८।।
I
कृपाइत्यादिषु शब्देषु आर्ऋत इत्वं भवति ।। किवा । हिययं । मिट्टं रसे एवं । अन्यत्र मट्ठ । दिट्ठ । दिट्ठी । सिट्ठ सिट्ठी गिट्टी गिण्ठी । पिच्छी । भिऊ। भिङ्गो । भिङ्गारो । सिङ्गारो । सिआलो । घिणा । घुसिणं । विद्ध- कई । समिद्धी । इद्धी । गिद्धी । किसो । किसाणू। किसरा । किच्छं । पिप्पं । किसिओ। निवो। किच्चा । किई । घिई । किवो । किविणो । किवाणं । विञ्चुओ। वित्तं । वित्ती हिअं । वाहित्तं । बिहिओ । विसी । इसी । विइण्हो । छिहा । सइ । उक्किटं । निसंसो॥ क्वचिन्न भवति। रिद्धी कृपा। हृदय। मृष्ट। दृष्ट। दृष्टि। सृष्ट। सृष्टि। गृष्टि । पृथ्वी। भृगु। भृङ्ग। भृङ्गार। शृङ्गार। मृगाल। घृणा । घुसृण । वृद्ध कवि । समृद्धि । ऋद्धि । गृद्धि । कृरा । कृशानु । कृसरा । कृछ । तृप्त । कृषित। नृप । कृत्या । कृति धृति । कृप । कृपण । कृपाण । वृश्चिक । वृत्त । वृत्ति । हृत । व्याहृत । वृहित । वृसी । ऋषि । वितृष्ण । स्पृहा । सकृत। उत्कृष्ट। नृशंस।।
अर्थः- कृपा आदि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' की 'इ' होती है। जैसे- कृपा किवा । हृदयम् = हिययं । मृष्टम् = (रस वाचक अर्थ में ही) मिट्ठ। मृष्ठम् (रस से अतिरिक्त अर्थ में) मट्टं । दृष्टम् = विट्ठ। दृष्टि:- दिट्ठी | सृष्टम् = सिट्ठ| सृष्टि:- सिट्ठी | गृष्टिः = गिट्टी और गिण्ठी । पृथ्वी = पिच्छी । भृगुः - भिऊ । भृङ्गः भिङ्गो = भिङ्गो । भृङ्गारः - भिङ्गारो । श्रृङ्गारः - सिङ्गारो । श्रृगालः-सिआलो। घृणा=घिणा । घुसृणम् = घुसिणम् । वृद्ध कविः विद्ध-कई । समृद्धिः = समिद्धि। ऋद्धि- इद्धि । गृद्धिः - गिद्धी । कृशः-किसो। कृशानुः- किसाणू । कृसरा-किसरा । कृच्छम्-किच्छं=तृप्तम्-तिप्पं। कृषितः किसिओ। नृपः निवो। कृत्या=किच्चा। कृतिः=किई। घृतिः=घिई। कृपः - किवो । कृपणः = किविणो । कृपाणम्-किवाणं । वृश्चिक:- विञ्चुओ । वृत्तम् = वित्तं । वृत्तिः-वित्ती=हतम् = हिअं। व्याहृतम्-वाहित्तं। बृंहितः- बिहिओ। वृसी-विसी । ऋषि :- इसी । वितृष्णः - विइण्हो । स्पृहा = छिहा। सकृत्=सइ। उत्कृष्टम्=उक्किट्ठ । नृशंसः निसंसो। किसी किसी शब्द में ऋ की 'इ' नहीं भी होती है। जैसे- ऋद्धिः- रिद्धी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org