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________________ 306 : प्राकृत व्याकरण अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'शील' अथवा 'धर्म' अथवा 'साधु' वाचक प्रत्यय रहा हुआ हो तो इन प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इर' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- हसनशीलः अर्थात् 'हसितृ' के संस्कृत रूप 'हसिता' का प्राकृत रूप 'हसिरो' होता है। रोदितृ-रोदिता-रोविरो। लज्जितृ-लज्जिता लज्जिरो। जल्पितृ जल्पिता जपिरो। वेपितृ-वेपिता-वेविरो। भमितृ भ्रमिता भमिरो। उच्छ् वसितृ-उच्छ् वसिता ऊस सिरो।। कोई-कोई व्याकरणाचार्य ऐसा मानते हैं कि 'शाल', 'धर्म' और साधु वाचक वृत्ति को बतलाने वाले प्रत्ययों के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु केवल तृन्' प्रत्यय के स्थान पर ही 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उनके सिद्धान्त से 'नमिर' 'गमिर' आदि रूपों की सिद्धि नहीं हो सकेगी। क्योंकि यहाँ पर 'तृन्' प्रत्यय का अभाव है; फिर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति हो गई है। इस प्रकार यहाँ पर 'बाधा-स्थिति उत्पन्न हो गई है। अतः 'शील' 'धर्म' और 'साधु' वाचक प्रत्ययों के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में उसी प्रकार से होती है; जिस प्रकार से कि-'तृन' प्रत्यय के स्थान पर 'इर' प्रत्यय आता है। 'हसिता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हसिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हसिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रोदिता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रोविरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२२६ से 'द्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रोविरो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'लज्जिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'लज्जिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लज्जिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'जल्पिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'जम्पिरो' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६ से 'ज' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर आगे 'प' वर्ण होने से पंचमान्त वर्ण 'म्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जम्पिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'वेपिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'वेविरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेविरो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'भ्रमिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'भमिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भमिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उच्छ्वसिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ऊससिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; मूल संस्कृत शब्द उत्+श्वासका उच्छवास होता है तदनुसार मूल शब्द में स्थित 'तृ' का सूत्र संख्या २-७७ से लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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