________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 307
प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊससिरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गमन शीलः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'गमिरो' होता है। मूल संस्कृत धातु 'गम्' है; इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गामिरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नमनशीलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नमिरो' होता है। मूल संस्कृत धातु 'नम्' है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्तिः और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नमिरा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४६।।
क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः।। २-१४६।। क्त्वा प्रत्ययस्य तुम् अत् तूण तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति।। तुम्। दटुं। मोत्तुं।। अत्। भमि। रमि।। तूणा घेत्तूण। काऊण।। तुआण। भेत्तुआण। सोउआण।। वन्दित्तु इत्यनुस्वार लोपात्।। वन्दित्ता इति सिद्ध-संस्कृतस्यैव वलोपेन।। कटु इति तु आर्षे।।
अर्थः- अव्ययी रूप भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा में धातुओं में क्त्वा' प्रत्यय का योग होता है; इसी अर्थ में अर्थात् भूत कृदन्त के तात्पर्य में प्राकृत भाषा में क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्, अत्, तूण, और तुआण' ये चार आदेश होते हैं। इनमें से कोई सा भी एक प्रत्यय प्राकृत-धातु में संयोजित करने पर भूत कृदन्त का रूप बन जाता है। जैसे-'तुम्' प्रत्यय के उदाहरणः-द्दष्ट्वा दटुं-देख करके। मुक्त्वा मोत्तुं छोड़कर के। 'अत्' प्रत्यय के उदाहरणः- भ्रमित्वा=भमि। रमित्वा=रमि।। 'तूण' प्रत्यय के उदाहरण:- गृहोत्वा-घेत्तूण। कृत्वा-काऊण।। 'तुआण' प्रत्यय के उदाहरण:भित्त्वा=भेत्तुआण। श्रुत्वा सोउआण।। __प्राकृत रूप, 'वन्दित्तु भूत कृदन्त अर्थक ही है। इसमें अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' रूप अनुस्वार का लोप होकर संस्कृत रूप 'वन्दित्वा' का ही प्राकृत रूप वन्दित्तु बना है। अन्य प्राकृत रूप 'वन्दित्ता' भी सिद्ध हुए संस्कृत रूप के समान ही 'वन्दित्वा' रूप में से 'ब' व्यञ्जन का लोप करने से प्राप्त हुआ है। संस्कृत रूप ‘कृत्वा' का आर्ष-प्राकृत में 'कटुं' ऐसा रूप होता है। ___ 'दृष्टवा'-संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दटुं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ४-२१३ से 'ष्ट्र के स्थान पर 'ट्ठ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तुम्' प्रत्यय में स्थित 'त्' व्यञ्जन का लोप; १-१० से प्राप्त '8' में स्थित 'अ' स्वर के आगे 'तुम्' में से शेष 'उम्' का 'उ' स्वर होने से लोप; १-५ से 'टु' में 'उम्' की संधि होने से 'ठुम्' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर 'दट्टुं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'मुक्त्वा ' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मोत्तुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'उ' स्वर को 'ओ' स्वर की गुण-प्राप्ति; २-७७ से 'क्' का लोप और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर 'मोत्तुं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भ्रमित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३-१५७ से 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'भमिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रमित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रमिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त 'रम्' धातु में 'म्' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org