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308 : प्राकृत व्याकरण
२-१४६ से संस्कृत कदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'रमिअरूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गृहीत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घेत्तूण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१० से 'गृह' धातु के स्थान पर 'घेत्' आदेश और २-१४६ से संस्कृत कदन्त 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' की प्राप्ति होकर 'घेत्तूण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काऊण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१४ से 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-१७७ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में से 'त्' का लोप होकर 'काऊण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भेत्तुआण' होता है। मूल संस्कृत धातु 'भिद्' है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'इ' के स्थान पर गुण रूप 'ए' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भेत्तुआण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोउआण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; ४-२३७ से 'सु' में रहे हुए 'उ' के स्थान पर गुण रूप 'ओ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१७७ से प्राप्त 'तुआण' प्रत्यय में से 'त्' व्यञ्जन का लोप होकर 'सोउआण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्दित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्दित्तु' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'क्त्वा' के स्थान पर 'तुम्' आदेश; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'वन्दित्तु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्दित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्दित्ता' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व्' का लोप और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति होकर 'वन्दित्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'कटु' रूप होता है। आर्ष रूपों में साधनिका का प्रायः अभाव होता है। ।। २-१४६।।
इदमर्थस्य केरः ।। २-१४७।। इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति।। युष्मदीयः तुम्हकेरो।। अस्मदीयः। अम्हकेरो।। न च भवति। मईअ-पक्खे। पाणिणीआ।। ___ अर्थः- 'इससे सम्बन्धित' के अर्थ में अर्थात् 'इम अर्थ' के तद्वित प्रत्यय के रूप मे प्राकृत में 'कर' आदेश होता है। जैसे:- युष्मदीयः-तुम्हकरो और अस्मदीयः अम्हकरो।। किसी किसी स्थान पर 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-मदीय-पक्षे-मईअ-पक्खे और पाणिनीया पाणिणीआ ऐसे रूप भी होते हैं।
'तुम्हकेरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४६ में की गई है। ।
'अस्मदीयः' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्हकेरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से 'अस्मत्' के स्थान पर 'अम्ह' आदेश; २-१४७ से 'इदम्'-अर्थ वाले संस्कृत प्रत्यय 'इय' के स्थान पर 'केर' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अम्हकेरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मदीय-पक्षे संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मईअ-पक्खे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' और 'य' दोनों का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति;
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