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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 309 २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मईअ-पक्ख' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पाणिनीयाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाणिणीआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १–१७७ से य का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ'को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पाणिणीआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४७।। पर-राजभ्यां क्क-डिक्को च ॥ २-१४८॥ __ पर राजन् इत्येताभ्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यं संयुक्तो क्को-डित् इकश्चादेशौ भवतः। चकारात्-केरश्च।। परकीयम्। पारक्क। परक्क। पारके।। राजकीयम्। राइक्क। रायकरं। अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर' और 'राजन्' के अन्त में 'इदमर्थ' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो तो प्राकृत के 'इदमर्थ' प्रत्यय के स्थान पर 'पर' में 'क्क' आदेश और 'राजन्' में 'इक्क' आदेश होता है, तथा मूल सूत्र में 'च' लिखा हुआ है; अतः वैकल्पिक रूप से केर' प्रत्यय की भी प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- परकीयम्=पारक्कं; परक्कं अथवा पारकरें।। राजकीयम्-राइक्कं अथवा रायके।। 'पारक्क' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। 'परकीयम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'परक्क' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४८ से 'कीय के स्थान पर 'क्क' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परक्क' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पारकर' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। 'राजकीयम' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'राइक्क' और 'रायकर होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से ज्' का लोप; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय ‘कीय' के स्थान पर 'इक्क' का आदेश; १-१० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' के आगे ‘इक्क' की 'इ' होने से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'राइक्कं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(राजकीयम्=) 'रायकेर' सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० के लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय 'कीय' के स्थान पर 'केर' का आदेश; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'रायकेरें भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४८।। युष्मदस्मदोब-एच्चयः ।। २-१४९।। आभ्यां परस्येदमर्थस्याब एच्चय इत्यादेशो भवति।। युष्माकमिदं यौष्माकम्। तुम्हेच्चयं एवम् अम्हेच्चयं।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम युष्मद् और अस्मद् में 'इदमर्थ' के वाचक प्रत्यय 'अब' के स्थान पर प्राकृत में 'एच्चय' का आदेश होता है। जैसे-'युष्माकम् इदम्=यौष्माकम् का प्राकृत रूप 'तुम्हेच्चयं होता है। इसी प्रकार से 'अस्मदीयम्' का अम्हेच्चयं होता है। __'यौष्माकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९१ से युष्मत् के स्थान पर 'तुम्ह' का आदेश; २-१४९ से 'इदमर्थ' वाचक-प्रत्यय 'अब' के स्थान पर 'एच्चय' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तुम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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