SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 305 "तिर्यक् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिरिच्छि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४३ से 'तिर्यक्' के स्थान पर 'तिरिच्छि' की आदेश-प्राप्ति होकर 'तिरिच्छि' रूप सिद्ध हो जाता है। "प्रेक्षते' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेच्छइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पेच्छइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'तिर्यक् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'तिरिआ होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१४३ से 'तिर्यक् के स्थान पर 'तिरिआ' आदेश की प्राप्ति होकर 'तिरिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४३।। गृहस्य घरोपतौ ॥ २-१४४।। गृहशब्दस्य घर इत्यादेशो भवति पति शब्दश्चेत् परो न भवति।। घरो। घर-सामी। राय-हरं।। अपतावितिकिम्। गह-वई। __अर्थः- संस्कृत शब्द 'गृह' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'घर' ऐसा आदेश होता है। परन्तु इसमें यह शर्त रही हुई है कि 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये। यदि 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति नहीं होगी। उदाहरण इस प्रकार है:- गृहः घरो।। गृह-स्वामी-घर-सामी।। राज-गृहम् राय-ह।। प्रश्नः- 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि संस्कृत शब्द 'गृह' के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति नहीं होकर अन्य सूत्रों के आधार से 'गह' रूप की प्राप्ति होगी। जैसे:- गृह-पतिः=गह-वई।। 'गृहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घरो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'गृह-स्वामी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घर-सामी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश और २-७९ से व्' का लोप होकर 'घर-सामी' रूप सिद्ध हो जाता है! 'राज-गृहम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'राय-हर' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'राय-हरे' रूप सिद्ध हो जाता है। 'गृह-पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गह-वई होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'गह-वइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४४।। शीलाद्यर्थस्येरः ॥ २-१४५।। शीलधर्मसाध्वर्थे विहितस्य प्रत्ययस्य इर इत्यादेशो भवति। हसन-शीलः हसिरो। रोविरो। लज्जिरो। जम्पिरो। वेविरो। भमिरो ऊससिरो।। केचित् तृन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयो न सिध्यन्ति। तृनोत्ररादिना बाधितत्वात्।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy