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304 : प्राकृत व्याकरण
बहिसो बाहिं-बाहिरौ ॥ २-१४०।। बहिः शब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः ।। बाहिं बाहिरं।।
अर्थः- संस्कृत अव्यय 'बहिस्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में बाहिं' और 'बाहिर' रूप आदेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:- बहिस् बाहिं और बाहिरं।
'बहिस्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बाहिं' और 'बाहिर होते हैं। इन दोनों रूपों में सूत्र संख्या २-१४० से 'बहिस्' के स्थान पर 'बाहिं' और 'बाहिरं' आदेश होकर दोनों रूप 'बाहिं' और 'बाहिर' सिद्ध हो जाते हैं।। २-१४०॥
अधसो हेर्दै ॥ २-१४१।। अधस् शब्दस्य हेटुं इत्ययमादेशो भवति।। हेटुं।। अर्थः- संस्कृत अव्यय अधः' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हे?' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अधस्-जैहेटुं। 'अधस्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हेटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४१ से 'अधस्' के स्थान पर 'हेटुं' आदेश होकर 'हेटुं' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१४१।।
मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-छौ ।। २-१४२।। मातृ-पितृभ्याम् परस्य स्वसृशब्दस्य सिआ छा इत्यादेशौ भवतः।। माउसिआ। माउ-च्छा। पिउ-सिआ। पिउ च्छा।।
अर्थः- संस्कत शब्द 'मात' अथवा 'पित' के पश्चात समास रूप से 'स्वस' शब्द जडा हआ हो तो ऐसे शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में 'स्वसृ' शब्द के स्थान पर 'सिआ' अथवा 'छा' इन दो आदेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:मातृ-ष्वसा=माउ-सिआ अथवा माउ-च्छा।। पितृ-ष्वसा=पिउ-सिआ अथवा पिउ-च्छा।।
'मातृ-ष्वसा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउ-सिआ' और 'माउ-च्छा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'माउ-सिआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है।
द्वितीय रूप (मातृ-ष्वसा=) माउ-च्छा में सूत्र संख्या १-१३४ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तु' में से 'त्' व्यञ्जन का लोप; २-१४२ से 'ष्वसा' के स्थान पर 'छा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' के स्थान पर 'च' होकर द्वितीय रूप-'माउ-च्छा' भी सिद्ध हो जाता है। __ "पितृ-ष्वसा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पिउ-सिआ' और 'पिउ-च्छा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'पिउ-सिआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है।
द्वितीय रूप (पितृ-ष्वसा=) 'पिउ-च्छा' में सूत्र संख्या १-१३४ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तु में से 'त्' व्यञ्जन का लोप; २-१४२ से 'ष्वसा' के स्थान पर 'छा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-'पिउ-च्छा' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४२।।
तिर्यचस्तिरिच्छिः ।। २-१४३।। तिर्यच् शब्दस्य तिरिच्छिरित्यादेशो भवति।। तिरिच्छि पेच्छइ॥ आर्षे तिरिआ इत्यादेशो पि। तिरिआ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'तिर्यच' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'तिरिच्छि' ऐसा आदेश होता है। जैसे:- तिर्यक् प्रेक्षते-तिरिच्छि पेच्छइ। आर्ष प्राकृत में 'तिर्यक् के स्थान पर 'तिरिआ ऐसे आदेश की भी प्राप्ति होती है। जैसे:तिर्यक् तिरिआ।।
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