SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 201 किसलय-कालायस-हृदये यः ।।१-२६९।। एषु सस्वरयकारस्य लुग् वा भवति । किसलं किसलयं ।। कालासं कालायसं ।। महण्णव-समासहिआ। जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति ।। निसमणुप्पिअ हिअस्स हिअयं ।। अर्थः- 'किसलय'; 'कालायस'; और 'हृदय' में स्थिर स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है जैसे:- किसलयम्-किसलं अथवा किसलय।। कालायसम्=कालासं अथवा कालायसं और हृदयम् हिअं अथवा हिअयं ।। इत्यादि।। ग्रंथकार ने वृत्ति में हृदय रूप को समझाने के लिये काव्यात्मक उदाहरण दिया है। जो कि संस्कृत रूपान्तर के साथ इस प्रकार है : (१) महार्णवसमाः सहृदयाः महण्णव-समासहिआ।। (२) यदा ते सहृदयैः गृहन्ते-जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति।। (३) निशमनार्पित हृदयस्य हृदयम्-निसमणुप्पिअ-हिअस्स हिअयं।। "किसलयम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'किसलं' और 'किसलय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६९ में स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'किसलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६९ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप 'किसलयं भी सिद्ध हो जाता है। ___'कालायसम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कालासं' और 'कालायस' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६९ में स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार हाकर प्रथम रूप 'कालासं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६९ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप 'कालायसं भी सिद्ध हो जाता है। 'महार्णव-समाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महण्णव-समा' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'महण्णव-समा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सहृदयाः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सहिआ होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' का 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२६९ से स्वर सहित 'य' का विकल्प से लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस् प्रत्यय का लोप और ३-२ से प्राप्त होकर लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ', को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सहिआ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'यदा' संस्कृत अव्यव है। इसका प्राकृत रूप 'जाला' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६५ से कालवाचक संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर 'आला' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जाला रूप सिद्ध हो जाता है। 'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता है। यह रूप मूल सर्वनाम 'तद्' से बनता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' आदेश की प्राप्ति होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सहदयैः' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहिअएहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से ही 'य' का भी लोप; ३-१५ से लुप्त हुए 'य' में शेष बचे हुए 'अ' को (अपने आगे तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय होने से) 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से संस्कृत भाषा के तृतीया विभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy