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200 : प्राकृत व्याकरण
__ 'भाजनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भाणं और 'भायणं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६७ से 'ज' का विकल्प से लोप; १-२२८ से 'न् का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय का 'म्' और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'भाणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'भायण' भी सिद्ध हो जाता है। __ 'दनुज-वधः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दणु-वहा' और 'दणुअ-वहा' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-२६७ से विकल्प से 'ऊ' का लोप; १-१८७ से 'ध' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दणु-वहो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'ज्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'दणुअ-वहो' भी सिद्ध हो जाता है।
'राजकुलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रा-उलं' और 'राय-उलं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६७ से विकल्प से 'ज' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'रा-उलं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'राय-उलं' भी सिद्ध हो जाता है। ।।१-२६७।।
व्याकरण-प्राकारागते कगोः ॥१-२६८।। एषु को गश्च सस्वरस्य लुग् वा भवति।। वारणं वायरणं। पारो पायारो ।। आओ आगओ ॥
अर्थः- 'व्याकरण और 'प्रकार' में रहे हुए स्वर रहित 'क' का अर्थात् सम्पूर्ण 'क' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे :- व्याकरणम्-वारणं अथवा वायरणं और प्राकारः-पारो अथवा पायारा।। इसी प्रकार से 'आगत' में रहे हुए स्वर सहित 'ग' का अर्थात् सम्पूर्ण 'ग' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- आगतः आओ अथवा आगओ।। __ 'व्याकरणम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वारणं' और 'वायरणं' होता है। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६८ से स्वर सहित 'क' का अर्थात् संपूर्ण 'क' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वारण सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'वायरणं' भी सिद्ध हो जाता है।
'प्राकारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकत रूप 'पारो' और 'पायारो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२६८ से स्वर सहित 'का' का अर्थात् संपूर्ण 'का' का विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पारा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'आ' को 'या की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पायारो' भी सिद्ध हो जाता है।
'आगतः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'आओ' और 'आगओ' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या १-२६८ से 'ग' का विकल्प से लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त
पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'आओ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - 'आगआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है।। १-२६८।।
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