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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 199
'षष्ठः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छटा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय 'ए' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'षष्ठी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय 'ष' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति होकर 'छट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'षट्पदः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छप्पओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष'
का 'छ'; २-७७ से 'ट्' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छप्पओ' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'षण्मुखः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छम्मुहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; १-२५ से 'ण' को पूर्व व्यञ्जन पर अनुस्वार की प्राप्ति एवं १-३० से प्राप्त अनुस्वार को परवर्ती 'म' के कारण से 'म्' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छम्मुहो' रूप की सिद्धि हो जाती है। __ 'समी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छमी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' होकर 'छमी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शावः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छावो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छावो' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'छुहा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है। 'छत्तिवण्णो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४९ में की गई। ।।१-२६५।।
शिरायां वा ॥१-२६६॥ शिरा शब्दे आदेश्छो वा भवति ।। छिरा सिरा।।
अर्थः- संस्कृत शब्द शिरा में रहे हुए आदि अक्षर 'श' का विकल्प से 'छ' होता है। जैसेः-शिराः छिरा अथवा सिरा।।
"शिरा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छिरा' और 'सिरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६६ से 'श' का विकल्प से 'छ' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' होकर क्रम से 'छिरा' और 'सिरा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६६।।
लुग भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न वा ।। १-२६७।। एषु सस्वरजकारस्य लुग् वा भवति ।। भाणं भायणं ।। दणु-वहो । दणुअ-वहो। रा-उलं राय-उलं ।।
अर्थः- 'भाजन, दनुज और राजकुल' में रहे हुए 'स्वर सहित जकार का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- भाजनम् भाणं अथवा भायणं।। दनुज-वधः दणु-वहो अथवा दणुअ-वहो और राजकुलम्-रा-उलं अथवा राय-उलं।। इन उदाहरणों के रूपों में से प्रथम रूप में स्वर सहित 'ज' व्यञ्जन का लोप हो गया है।
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