________________
202 : प्राकृत व्याकरण
के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'ऐस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सहिअएहिं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गृह्यन्ते' कर्मणि वाच्य क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घेप्पन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - २५६ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'घेप्प' का आदेश; और इसी सूत्र की वृत्ति से संस्कृत भाषा में कर्मणि वाच्यार्थ बोधक 'य' प्रत्यय का लोप; ४-२३९ से 'घेप्प' धातु में स्थित हलन्त द्वितीय 'प्' को 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घेप्पन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निशमनार्पित-हृदयस्य' संस्कृत समासात्मक षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निसमणुप्पिअहिअस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-६३ से 'ना' वर्ण में संधि के कारण से स्थ अर्पित के आदि स्वर 'अ' को 'ओ' की प्राप्ति एवं १-८४ प्राप्त इस 'ओ' स्वर को अपने हस्व स्वरूप 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त' का लोप; १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से ‘द्' का लोप; १ - २६९ से स्वर सहित संपूर्ण 'य' का लोप और ३- १० से संस्कृत में षष्ठी विभक्ति बोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निसमणुप्पिअ-हिअस्स' रूप की सिद्धि हो जाती है। 'हिअयं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। । १ - २६९ ।।
दुर्गादेव्युदुम्बर- पादपतन - पाद पीठन्तर्दः ।। १ - २७० ।।
एषु सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग् वा भवति ।। दुग्गा-वी । दुग्गा एवी उम्बरो उउम्बरो ।। पा-वडणं पाय-वडणं । पा- वीढं पाय - वीढं । अन्तरिति किम् । दुर्गा देव्यामादौ मा भूत् ।
अर्थः- दुर्गा देवी, उदुम्बर, पाद पतन और पाद पीठ के अन्तर्मध्य भाग में रहे हुए स्वर सहित 'द' का अर्थात् पूर्ण व्यञ्जन 'द' का विकल्प से लोप होता है। 'अन्तर्मध्य-भाग' का तात्पर्य यह है कि विकल्प से लोप होने वाला 'द' व्यञ्जन न तो आदि स्थान पर होना चाहिये और न अन्त स्थान पर ही; किन्तु शब्द के आन्तरिक भाग में अथवा मध्य भाग में होना चाहिये। जैसे :- दुर्गा देवी - दुग्गा-वी अथवा दुग्गा - एवी ।। उदुम्बरः- उम्बरा अथवा उउम्बरा ।। पाद-पदनम्-पा वडण अथवा पाय वडणं और पाद् - पीठम् - पा- वीढं अथवा पाय वीढ ।।
प्रश्नः- ‘अन्तर-मध्य-भाग' में ही होना चाहिये तभी स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप होता है। ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः- क्योंकि यदि ‘द' वर्ण शब्द के आदि में अथवा अन्त में स्थित होगा तो उस 'द' का लोप नहीं होगा । इसीलिये ‘अन्तर्मध्य' भाग का उल्लेख किया गया है। जैसे :- दुर्गा देवी में आदि में 'द' वर्तमान है; इसलिये इस आदि स्थान पर स्थित 'द्' का लोप नहीं होता है। जैसे:- दुर्गा देवी = दुग्गा - वी ।। इत्यादि ।।
'दुर्गा देवी' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुग्गा-वी' और 'दुग्गा - एवी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्′ का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; और १ - २७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'दे' का अर्थात् सम्पूर्ण 'दे' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर प्रथम रूप 'दुग्गा - वी' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप होकर एवं शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'दुग्गा - एवी' भी सिद्ध हो जाता है।
'उदुम्बरः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उम्बरो' अथवा 'उउम्बरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्य-वर्ती स्वर सहित 'दु' का अर्थात् संपूर्ण 'दु' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'उम्बरो' और 'उउम्बरो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'पाद-पतनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पा-वडणं' और 'पाय -वडणं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २७० से अन्तर्मध्यवर्त्ती स्वर सहित ' 'का अर्थात् संपूर्ण 'द' व्यञ्जन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द' का लोप एवं १ - १८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - २३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org