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88 : प्राकृत व्याकरण
उज्जीर्णे ॥ १-१०२ ॥ जीर्ण शब्दे ईत उद् भवति।। जुण्ण सुरा ।। क्वचिन्न भवति। जिण्णे भोअणमत्ते।
अर्थ :-जीर्ण शब्द में रही हुई 'ई' का 'उ' होता है। जैसे-जीर्ण-सुरा-जुण्ण-सुरा। कहीं कहीं पर इस 'जीर्ण' में रही हुई 'ई' का 'उ' नहीं होता है। किन्तु दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ' देखी जाती है। जैसे-जीर्णे भोजन-मात्रे-जिण्णे भोअणमते।।
जीर्णः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप जुण्ण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०२ से 'ई' का 'उ'; २-७९ से 'र' का लोप; और २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण' होकर 'जुण्ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
सुरा संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भी सुरा ही होता है। __ जीर्णे संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप जिण्ण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ई' की 'इ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; और ३-११ से सप्तमी के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिण्णे' रूप सिद्ध हो जाता है।
भोजन-मात्रे संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भोअण-मत्ते होता हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से 'आ' का 'अ';२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त'; और ३-११ से सप्तमी के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भोअण-मत्ते रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०२।।
ऊहीन-विहीने वा ॥१-१०३।। अनयोरीत ऊत्वं वा भवति।। हूणो, हीणो। विहूणो विहीणो।। विहीन इतिकिम्। पहीण-जर-मरणा।
अर्थ :-हीन और विहीन इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ई' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे- हीनः-हूणो और हीणो।। विहीनः विहूणो और विहीणो।। विहीन-इस शब्द का उल्लेख क्यों किया ? उत्तर-यदि विहीन शब्द में 'वि' उपसर्ग नहीं होकर अन्य उपसर्ग होगा तो 'हीन' में रही हुई 'ई' का 'ऊ' नहीं होगा। जैसे-प्रहीन-जर-मरणा:=पहीण-जर-मरणा। यहाँ पर 'प्र' अथवा 'प' उपसर्ग है और 'वि' उपसर्ग नहीं है; अतः 'ई' का 'ऊ' नहीं हुआ है। __ हीनः संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप हूणो और हीणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०३ से 'ई' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से हूणो और हीणा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
विहीनः संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप विहूणा और विहीणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०३ से 'ई' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से विहूणो और विहीणो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रहीन संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप पहीण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-२२८ से 'न' का 'ण'; होकर पहीण रूप सिद्ध हो जाता है।
जरा-मरणाः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जर-मरणा होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिंग 'जस्'; प्रत्यय की प्राप्ति; एवं लोप; और ३-१२ से 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर जर-मरणा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०३।।
तीर्थे हे ॥१-१०४॥ .. तीर्थ शब्दे हे सति ईत ऊत्वं भवति।। तूह।। हइति किम्। तित्थं।।
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