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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 87
तृतीयम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तइअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तइअं रूप सिद्ध हो जाता है।
भीरम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिरम् होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'भ' का 'ह' ; १ - १०१ सेदीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिरं रूप सिद्ध हो जाता है।
उपनीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उवणिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' का 'व्'; १- २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उवणिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
आनीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप आणिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आणिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रदीपितग् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पलिविअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १-२२१ से‘द' का 'ल'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - २३१ से 'प' का 'व्'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पलिविअं रूप सिद्ध हो जाता है।
अवसीदतम् संस्कृत वर्तमान कृदन्त है। इसका प्राकृत रूप ओसिअन्तं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७२ से 'अव' का 'ओ' ; १ - १०९ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-१८१ से 'रातृ' प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ओसिअन्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रसीद संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप पसिअ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; होकर पसिअ रूप सिद्ध हो जाता है।
गृहीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ' ; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
वल्मीकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप वम्मिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'ल्' का लोप; २-८९ से 'म्' का द्वित्व 'म्म'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - १७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वम्मिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
तदानीम् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप तयाणिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; १ - १८० से शेष 'आ' का 'या'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'तयाणि' रूप सिद्ध हो जाता है।
पाणीअं, अलीअं, जीआइ, करीसो शब्दों की सिद्धि ऊपर की जा चुकी है।
उपनीतः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप उवणीओ और उवणिओ होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' का 'व'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उवणीओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; होकर उवणिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१०१ ॥
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