________________
86 : प्राकृत व्याकरण
अर्थ :-पानीय आदि शब्दों में रही हुई 'ई' का 'इ' होती है। जैसे-पानीयम्=पाणी अलीकम् अलिआंजीवती-जिअइ। जीवतु-जिअउ। त्रीडितम्-विलिआ करीषः करिसो। शिरीषः सिरिसो। द्वितियम् दुइओ तृतीयम्=तइ गभीरम्=गहिरम् उपनीतम् उवणि आनीतम् आणि प्रदीपितम्=पलिविध अवसीदतम् ओसिअन्त। प्रसीद-पसि। गृहीतम गहि। वल्मीकः-वम्मिओ। तदानीम्=तयाणिं। इस प्रकार ये सब 'पानीय आदि' जानना। बहुल का अधिकार होने से इन शब्दों में कहीं कहीं पर तो 'ई' की 'ई' नित्य होती है; और कहीं कहीं पर 'ई' की 'इ' विकल्प से हुआ करती है। इस कारण से पानीयम्=पाणीअं और पाणिअं; अलीकम् अलीअं और अलिअं; जीवति-जिअइ और जीअइ; करीषः-करीसो और करिसो; उपनीतः-उवणीओ और उवणिओ। इत्यादि स्वरूप वाले होते हैं। ___ पानीयम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पाणिअं और पाणीअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' का हस्व 'इ'; १-१७७ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पाणिअंरूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर पाणीअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ अलीकग् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप 'अलिअं' और 'अलीअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१०१ से 'दीर्घ ई' का ह्रस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि 'प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर अलिंअरुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रुप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ईं ज्यों की त्यों ही रह कर 'अलीअं रुप सिद्ध हो जाता है। ___ जीवति संस्कृत अकर्मक क्रिया है; इसके प्राकृत रुप जिअइ और जीअइ होते हैं। मूल धातु 'जीव है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से 'व् में 'अ की प्राप्ति; १-१०१ से दीर्घ 'ई की हस्व 'ई १-१७७ से 'व् का लोप; ३-१३९ से र्वतमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ई प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिअइ रुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर जीअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
जीवतु संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रुप 'जिअउ होता है। इसमें 'जिअ तक सिद्धि उपर के अनुसार जानना और ३-१७३ से आज्ञार्थ में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'तु' प्रत्यय के स्थान पर 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीअउ रूप सिद्ध हो जाता है।
वीडितम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विलिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२०२ से 'ड' का 'ल' १-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विलिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
करीषः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप करिसा और करीसो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करिसो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर करीसा रूप सिद्ध हो जाता है।
शिरीषः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिरिसो होता है। इनमें सूत्र-संख्या-१-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२६० से 'श' तथा 'ष' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीयम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुइअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व'; त् और 'य' का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुइअंरूप सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org