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322 प्राकृत व्याकरण
कुङकुम पिञ्जर (क) म् - संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कुङकुम पिञ्जरयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६४ से 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १ - १८० लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुङकुम पिञ्जरयं रूप सिद्ध हो जाता है।
गगने (= गगनके ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयणयम्मि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'ग् का लोप; १ - १८० से लोप हुए द्वितीय 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ प्राप्त 'क्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गयणयम्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धरणी धर-पक्षोद्भातम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ' धरणी हर- पक्खुब्भन्तयं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से द्वितीय 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ख्' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति १ -८४ से दीर्घ स्वर 'ओ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति एवं १-५ से हलन्त 'ख्' के साथ सम्मिलित होकर 'खु' की प्राप्ति; २ - ७७ से हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'भू' के स्थान पर 'ब्' की प्राप्ति;१ - ८४ से ' भा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २६ से 'भ' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १ - ३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर आगे 'त' वर्ण होने से 'त' वर्ग के पंचामक्षर रूप 'न' की प्राप्ति; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'धरणी हरं - पक्खुब्भन्तयं * रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुःखिते' (= दुःखितके) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुहिअए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश; १ - १७७ से 'त्' का लोप २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दुहिअए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रामहृदये' (-राम-हृदयके ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'राम-हिअयए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'राम- हिअय ' रूप सिद्ध हो जाता है।
इयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २४ में की गई है।
'आलेट्टुअ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २४ में की गई है।
'बहुम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बहुअ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २ - १६४ की वृत्ति से मूल रूप 'बहु' में दो 'ककारों' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त दोनों 'क्' का हलन्त रूप से लोप; १ - १८० से लोप हुए द्वितीय 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बहुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वदने' संस्कृत रूप है। इसका पैशाचिक - भाषा में 'वतनके' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- ३०७ से 'द' के
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