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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 323 स्थान पर 'त' की प्राप्ति; २–१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वतनके रूप सिद्ध हो जाता है।
वदनम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका पैशाचिक-भाषा में वतनकं रूप होता है। 'वतनक रूप तक की साधनिका उपरोक्त 'वतनके' के 'वतनक' समान ही जानना; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वतनकं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'समर्पित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका पैशाचिक भाषा में 'समप्पेत्तून' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ए' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ३-१५७ से मूल रूप में तूण' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'समप्प' धातु में स्थित अन्त्य 'अ विकरण प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; (नोट:- सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'समप्प में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति हुई है); २-१४६ से कृदन्त वाचक संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में स्थित 'त्' के स्थान पर द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; और ४-३०६ से प्राकृत भाषा के शब्दों में स्थित 'ण' के स्थान पर पैशाचिक-भाषा में 'न' की प्राप्ति होकर 'समप्पेत्तून' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्जिताशोक-पल्लवेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति;
'त' और 'क' का लोपः १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्राप्ति: २-१६४ से 'स्व अर्थ में 'डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक 'ड्' होने से 'व' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप एवं १-५ से प्राप्त 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' की प्राप्त हलन्त 'व्' में संधि और ३-६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ल्ल' के 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पुरो' अथवा 'पुरा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ से 'स्व-अर्थ में डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक 'इ' होने से 'रो' के 'ओ' की अथवा 'रा' के 'आ' की इत्-संज्ञा; १-५ से प्राप्त 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' की प्राप्त हलन्त 'र' में संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुरिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'ममपितृकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मह-पिउल्लओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११३ से संस्कृत रूप 'मम' के स्थान पर 'मह' आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-१६४ से संस्कृत 'स्व-अर्थ' द्योतक प्रत्यय 'क' के स्थान पर प्राकृत में 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक होने से 'तृ' में से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हए स्वर-ऋकी इत-संजाः १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मह-पिउल्लओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मुखम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुहल्लं' और 'मुहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में 'ड्' इत्-संज्ञक होने से प्राप्त ह' में स्थित 'अ' की इत्-संज्ञा; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह्' में प्राप्त प्रत्यय 'उल्ल' के 'उ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'मुहल्लं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'मुहं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८७ में की गई है।
हस्तौ संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हत्थुल्ला' और 'हत्था' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' के स्थान पर द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में 'ड्'
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