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________________ 324 : प्राकृत व्याकरण इत्-संज्ञक होने से प्राप्त 'त्थ' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्थ' में प्राप्त प्रत्यय 'उल्ल' के 'उ' की संधि; ३-१३० से संस्कृत रूप में स्थित द्विवचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से 'ल्ल' में स्थित अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से 'स्थ' में स्थित 'अ' स्वर को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'हत्थुल्ला' और 'हत्था' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। चन्दो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३० में की गई है। 'गगनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयणं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गयणं रूप सिद्ध हो जाता है। इह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है। 'आश्लेष्टुम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलेटुं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'श्' का लोप; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आलेढुं रूप सिद्ध हो जाता है। बहु (क) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बहु और 'बहुअं होते हैं। प्रथम रूप 'बहु' संस्कृत 'वत्' सिद्ध ही है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-१६४ से स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'क्' प्रत्यय का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'बहुअं भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६४।। ल्लो नवैकाद्वा ॥ २-१६५॥ आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो लो वा भवति।। नवल्लो। एकल्लो।। सेवादित्वात् कस्य द्वित्वे एकल्लो। पक्षे। नवो। एक्को। एओ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'नव' और 'एक' में स्व अर्थ में प्राकृत भाषा में वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-नवः-नवल्लो अथवा नवो। एकः एकल्लो अथवा एओ। सूत्र संख्या २ -९९ के अनुसार एक शब्द सेवादि-वर्ग वाला होने से इसमें स्थित 'क्' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति हो जाती है; तदनुसार 'एकः' के प्राकृत रूप 'स्व-अर्थ' में 'एकल्लो ' और 'एक्को ' भी होते हैं। 'नवः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप (स्वार्थ बोधक प्रत्यय के साथ) 'नवल्लो' और 'नवो' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१६५ से स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'नवल्लो' और 'नवो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'एकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप (स्वार्थ-बोधक प्रत्यय के साथ)-'एकल्लो', 'एक्कल्लो', 'एक्को' और 'एओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१६५ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'एकल्लो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(एक:=) 'एक्कल्लो' में सूत्र संख्या २-८९ से 'क' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'एक्कल्लो सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप 'एक्को' और चतुर्थ रूप 'एओ की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है। ।। २-१६५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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