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उपरेः संव्याने ।। २-१६६।।
संव्यानेर्थे वर्तमानादुपरि शब्दात् स्वार्थे ल्लो भवति ।। अवरिल्लो ।। संव्यान इति किम् । अवरिं । । अर्थः- ‘ऊपर का कपड़ा' इस अर्थ में यदि 'उपरि' शब्द रहा हुआ हो तो 'स्व-अर्थ' में 'उपरि' शब्द के साथ 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- उपरितन:- अवरिल्लो |
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 325
प्रश्न:- 'संव्यान= ऊपर का कपड़ा' ऐसा होने पर ही उपरि-उवरि के साथ में 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है ऐसा प्रतिबंधात्मक उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- यदि 'उपरि' शब्द का अर्थ 'ऊपर का कपड़ा' नहीं होकर केवल 'ऊपर' सूचक अर्थ ही होगा तो ऐसी स्थिति में स्व-अर्थ बोधक 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत साहित्य में नहीं देखी जाती है; इसलिये प्रतिबंधात्मक उल्लेख किया गया है । जैसे:- उपरि = अवरिं ।।
‘उपरितनः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत-रूप- (स्वार्थ- बोधक प्रत्यय के साथ) 'अवरिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - १०७ में 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १६६ से संस्कृत स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर प्राकृत में 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ' अवरिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। अवरिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६ में की गई है । । २ - १६६ ।।
भ्रुवो मया डमया ॥ २-१६७।। भ्रुशब्दात् स्वार्थे मया डमया इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः ।। भुमया। भमया ।।
अर्थः- 'थ्रु' शब्द के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में कभी 'मया' प्रत्यय आता है और कभी 'डमया (= अमया) - प्रत्यय आता है। 'मया' प्रत्यय के साथ में 'भ्रू' शब्द में स्थित अन्त्य 'उ' की इत्-संज्ञा नहीं होती है; किन्तु 'डमया' प्रत्यय में आदि में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; अतः 'डमया' प्रत्यय की प्राप्ति के समय में ' भ्रू' शब्द में स्थित अन्त्य 'ऊ' की इत्संज्ञा हो जाती है । यह अन्तर ध्यान रक्खा जाना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- भ्रूः = भुमया अथवा भमया।।
भुमया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२१ में की गई है।
'भ्रूः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ- बोधक प्रत्यय के साथ) 'भमया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्' का लोप; २-१६७ से 'स्व-अर्थ' में प्राप्त प्रत्यय 'डमया' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त 'भू' में स्थित अन्त्य स्वर ‘ऊ' की इत्संज्ञा होकर 'अमया' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से हलन्त् 'म्' में 'डमया' प्रत्यय में से अवशिष्ट 'अमया' के 'अ' की संधि; और १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'भमया' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६७।। शनै सो डिअम् ।। २-१६८।।
शनैस् शब्दात् स्वार्थे डिअम् भवति ।। सणिअमवगूढो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'शनैः' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। 'डिअम्' प्रत्यय में आदि 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'शनैः' के 'ऐ' स्वर की इत्संज्ञा होकर 'इअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । जैसे:-शनैः अवगूढ़ =सणिअम् अवगूढो अथवा सणिअमवगूढो ।।
'शनैः' (=शनैस्) संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सणिअम्' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १६८ से 'स्व-अर्थ' में 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिअम्' प्रत्यय में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ए' स्वर की इत्संज्ञा अर्थात् लोप; १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन विसर्ग रूप 'स्' का लोप; और १-५ से प्राप्त रूप 'सण्' में पूर्वोक्त इअम् की संधि होकर 'सणिअम्' रूप सिद्ध हो जाता है।
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