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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 59 'पक्वम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पिक्क' और 'पक्क' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४७ से आदि 'अ' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'क' का द्वित्व 'क्क'; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पिक्क' और 'पक्क' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अङ्गारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'इङ्गालो' और अङ्गारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४७ से आदि 'अ' की विकल्प से 'इ'; १-२५४ से 'र' का 'ल' विकल्प से, और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'इङ्गालो' और 'अङ्गारो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'ललाटम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'णिडालं' और 'णडालं' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२५७ से
१-४७ से प्राप्त 'ण' के 'अ'की विकल्प से 'ड':१-१९५ से 'ट'का 'ड':२-१२३ से द्वितीय'ल' और प्राप्त 'ड' का व्यत्यय (आगे का पीछे और पीछे का आगे); ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'णिडालं' और 'णडालं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-४७।।।
मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ॥ १-४८ ॥ मध्यम शब्दे कतम शब्दे च द्वितीयस्यात इत्वं भवति।। मज्झिमो। कइमो।। अर्थः- मध्यम शब्द में और कतम शब्द में द्वितीय 'अ' की 'इ' होती है। जैसे-मध्यमः मज्झिमो। कतमः कइमो।।
'मध्यमः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मज्झिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४८ से द्वितीय 'अ' की 'इ'; २-२६ से 'ध्य' का 'झ'; २-८९ से प्राप्त 'झ' का द्वित्व 'झ्झ'; २-९० से प्राप्त 'झ्' का 'ज्'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'मज्झिमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कतमः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कइमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-४८ से शेष द्वितीय 'अ' की 'इ'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'कइमो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४८।।
सप्तपणे वा ।। १-४९।। सप्तपणे द्वितीयस्यात इत्वं वा भवति।। छत्तिवण्णो। छत्तवण्णो।। अर्थः-सप्तपर्ण शब्द में द्वितीय 'अ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-सप्तपर्णः-छत्तिपण्णो और छत्तवण्णो।। 'सप्तवर्णः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'छत्तिवण्णो' और 'छत्तवण्णो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'स' का 'छ'; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-४९ से द्वितीय 'अ' की याने 'त' के 'अ' की 'इ' विकल्प से; १-२३१ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'छत्तिवण्णो ' और 'छत्तवण्णो ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-४९।।
__ मयट्य इ र्वा ।। १-५० ।। मयट् प्रत्यये आदेरतः स्थाने अइ इत्यादेशो भवति वा।। विषमयः। विसमइओ। विसमओ।
अर्थः-'मयट्' प्रत्यय में आदि 'अ' के स्थान पर 'अइ' ऐसा आदेश विकल्प से हुआ करता है। जैसेविषमयः विसमइओ और विसमओ॥
"विषमयः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'विसमइओ' और 'विसमओ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२६०
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