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________________ 58 : प्राकृत व्याकरण तृतीय रूप में सूत्र संख्या १ - ४६ की वृत्ति के अनुसार 'आर्ष' में आदि 'अ' का 'उ' भी हो जाता है। यों सुमिणो रूप सिद्ध हो जाता है। शेष सिद्धि ऊपर के समान जानना । 'ईषत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ईसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-४६ से 'स' के 'अ' की 'इ'; १- ११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'ईसि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वेतसः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वेडिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'त' के 'अ' की 'इ'; १-२०७ से ‘त' का ‘ड'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'वेडिसो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'व्यलीकम्' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'विलिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १-४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की 'इ'; १-८४ से 'ली' के दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ' ; १ - १७७ से 'क्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विलिअ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'व्यजनम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विअणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १ - ४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की 'इ'; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - २२८ से 'न' का 'ण' ३ - २५ से प्रथमा में एकवचन में नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विअण' रूप सिद्ध हो जाता है। 'मृदङ्गः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मुइगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' का 'उ'; १-४६ से 'द' के 'अ' की 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'मुइगो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कृपण:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'किविणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-४६ से 'प' के 'अ' की 'इ'; १ - २३१ से 'प' का 'व'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'किविणो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उत्तम:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'उत्तिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ४६ से 'त्त' के 'अ' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन 'में' पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'उत्तिमो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'मरिचम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मिरिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'म' के 'अ' की 'इ'; १-१७७ से 'च्' का लोप; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मिरिअ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'दत्तम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दिण्णं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ४६ से 'द' के 'अ' की 'इ'; २-४३ से 'त्त' के स्थान पर 'ण' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दिण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'देवदत्तः' संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप 'देवदत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'देवदत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-४६ ॥ पक्वाङ्गार- ललाटे वा ।। १–४७।। एष्वादेरत इत्वं वा भवति ।। पिक्कं पक्कं । इङ्गालो अङ्गारो । णिडालं णडालं ।। अर्थः- इन शब्दों में-पक्व - अङ्गार- और ललाट में आदि में रहे हुए 'अ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-पक्कम्=पिक्कं और पक्कं | अङ्गारः - इङ्गालो और अङ्गारो । ललाटम् - णिडालं और णडालं ।। ऐसा जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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