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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 57 वृत्ति से आदि 'अ' का 'आ'; २-१४८ से 'कीयम्' के स्थान पर 'केर' और 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पारकरं और 'पारक्क रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पावयणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'च' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'पावयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'चतुरन्तम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'चाउरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'चाउरन्त' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४४।।
दक्षिणे हे ॥१-४५ ॥ दक्षिण शब्दे आदेरतो हे परे दीर्घा भवति।। दाहिणो। ह इति किम्। दक्खिणो॥
अर्थः-दक्षिण शब्द में यदि नियमानुसार 'क्ष' का 'ह' हो जाय तो ऐसा 'ह' आगे रहने पर 'द' में रहे हुए 'अ' का 'आ' होता है। जैसे कि-दक्षिणः= दाहिणो। 'ह' ऐसा क्यों कहा? क्योंकि यदि 'ह' नहीं होता तो 'द' के 'अ' का 'आ' नहीं होगा। जैसे कि दक्षिणः-दक्खिणो।।
'दक्षिणः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'दाहिणो' और 'दक्खिणो' दोनों होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७२ से विकल्प से 'क्ष' का 'ह'; १-४५ से आदि 'अ' का 'आ'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दाहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'दक्खिणो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४५।।
इः स्वप्नादौ ।। १-४६ ॥ स्वप्न इत्येवमादिषु आदरेस्य इत्वं भवति।। सिविणो। सिमिणो।। आर्षे उकारोपि। सुमिणो। ईसि। वेडिसो। विलिओ विअणंमुइङ्गो। किविणो। उत्तिमो। मिरिआ दिण्ण।। बहुलाधिकाराण्णत्वाभावे न भवति। दत्त। देवदत्तो।। स्वप्न। ईषत्। वेतस। व्यलीक। व्यजन। मृदङ्ग। कृपण। उत्तम। मरिच। दत्त इत्यादि।।
अर्थः- 'स्वप्न' आदि इन शब्दों में आदि 'अ' की 'इ' होती है। जैसे-स्वप्नः सिविणो और सिमिणो।। आर्षरूप में 'उ' भी होता है-जैसे-सुमिणो।। ईषत्-ईसि।। वेतसः-वेडिसो।। व्यलीकम् विलि। व्यजनम् विअणं। मृदङ्ग-मुइंगो।। कृपणः किविणो।। उत्तमः उत्तिमो।। मरिचम्-मिरि।। दत्तम्-दिण्ण।। __ 'बहुलम्' के अधिकार से जब दत्तम् में 'ण' नहीं होता है; अर्थात दिण्णं रूप नहीं होता है; तब दत्तम् में आदि 'अ' की 'इ' भी नहीं होती है। जैसे-दत्तम् दत्त।। देवदत्तः=देवदत्तो।। इत्यादि।। __ 'स्वप्नः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप सिविणो; सिमिणो; और आर्ष में 'सुमिणो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' के 'अ' की 'इ'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-१०८ से 'न' से पूर्व 'प' में 'इ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प्' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर "सिविणो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सिमिणो' में सूत्र संख्या १-२५९ से 'व' के स्थान पर 'म्' हो जाता है; तब 'सिमिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
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