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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 279 १-१७७ से 'त्' का लोप; १-११७ से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'कोउहलं' भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'व्याकुलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वाउल्लो' और 'वाउला' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'वाउल्लो' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२१ में की गई है। द्वितीय रूप-(व्याकुल:-) 'वाउलो' में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'वाउलो' भी सिद्ध हो जाता है। 'स्थूलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थुल्लो' और 'थोरो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'ल' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थुल्लो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(स्थूलः=) थोरो में सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१२४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-२५५ से 'ल' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'थोरो' भी सिद्ध हो जाता है। 'हूतम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हुत्तं' और 'हूअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'हुत्तं' और 'हूअं दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं। दइव्वं और दइवं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५३ में की गई है। 'तृष्णीकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तुण्हिक्का' और 'तुण्हिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'तुण्हिक्को' और 'तुण्हिओ' दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'मूकः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुक्को ' और 'मूओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम स 'मुक्को' और 'मूओ' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'स्थाणुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खण्णू' और 'खाणू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यञ्जन “स्थ' के स्थान पर 'ख' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ "आ" के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'ण' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'पण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'खण्णू' सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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