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________________ 84 : प्राकृत व्याकरण अथ :-प्रवासी और इक्षु शब्दों में आदि 'इ' का 'उ' होता है। जैसे-प्रवासिकः पावासुओ। इक्षुः उच्छू।। प्रवासिकः संस्कृत विशेषण शब्द है। इसका प्राकृत रूप पावासुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप, १-४४ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-९५ से 'इ' का 'उ'; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर पावासुओ रूप सिद्ध हो जाता है। इक्षुः संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप उच्छू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-९५ से 'इ' का 'उ'; २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उच्छू रूप सिद्ध हो जाता है।।१–९५।। युधिष्ठिरे वा ॥ १-९६॥ युधिष्ठिर शब्दे आदेरित उत्वं वा भवति।। जहुट्ठिलो। जहिट्ठिलो।। अर्थ :-युधिष्ठिर शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे-युधिष्ठिरः जहुट्ठिलो और जहिट्ठिलो।। युधिष्ठिरः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप जहुट्ठिलो और जहिट्ठिलो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या-१-२४५ से 'य' का 'ज्'; १-१०७ से 'उ' का 'अ'; १-१८७ से 'ध्' का 'ह'; १-९६ से आदि 'इ' का विकल्प से 'उ'; २-७७ से 'ए' का लोप; २-८९ से 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' का 'ट'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से जहुट्ठिलो और जहिटिलो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-९६।। ओच्च द्विधाकृगः ।। १-९७ ॥ द्विधा शब्दे कृग् धातोः प्रयोगे इत ओत्वं चकारादुत्वं च भवति।। दोहा-किज्जइ। दुहा-किज्जइ।। दोहा-इओ दुहा-इ।। कृग इति किम्। दिहा-गय।। क्वचित् केवलस्यापि।। दुहा वि सो सुर-वहू-सत्थो॥ अर्थ :-द्विधा शब्द के साथ में यदि कृग् धातु का प्रयोग किया हुआ हो तो 'द्विधा' में रही हुई 'इ' का 'ओ' और 'उ' क्रम से होता है। जैसे द्विधा क्रियते दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ।। द्विधाकृतम्-दोहा-इअं और दुहा-इ'कृग्' ऐसा उल्लेख क्यों किया? उत्तर-यदि द्विधा के साथ में कृग्' नहीं होगा तो 'इ' का 'ओ' और 'उ' नहीं होगा। जैसे-द्विधा-गतम्-दिहा-गय।। कहीं-कहीं पर केवल द्विधा ही हो और कृग् धातु साथ में नहीं हो तो भी 'द्विधा' के 'इ' का 'उ' देखा जाता है। जैसे-द्विधापि सः सुर वधू-सार्थः दुहा वि सो सुर-वहू-सत्थो। यहाँ पर 'द्विधा' में रही हुई 'इ' का 'उ' हुआ है।। द्विधा क्रियते संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९७ से 'द्वि' के 'इ' का क्रम से 'ओ' और 'उ'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७९ से 'र' का लोप; ३-१६० से संस्कृत में कर्मणि वाच्य में प्राप्त 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति, १-१० से 'इ' का लोप; ४-१३९ से प्रथम पुरुष के एकवचन में वर्तमान काल के 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। द्विधा-कृतम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप दोहा-इअं और दुहा-इअं होते हैं। इनमें से दोहा और दुहा की सिद्धि तो ऊपर के अनुसार जानना। शेष कृतम् रहा। इसकी सिद्धि इस प्रकार है सूत्र-संख्या-१-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-१७७ से 'क्' और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोहा-इअं और दुहा-इअं रूप सिद्ध हो जाते हैं। द्विधा-गतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दिहा-गयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' और 'त्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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