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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 83 द्विरेफः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुरेहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-२३६ से 'फ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुरेहो रूप सिद्ध हो जाता है। द्विवचनं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुवयणं होता है; इसमें सूत्र-संख्या-१-१-७७ से आदि 'व्' और 'च्' का लोपः १-९४ से 'इ'का'उ':१-१८० से'च' के शेष 'अ'का 'य': १-२२८ से 'न' का 'ण': ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुवयणं रूप सिद्ध हो जाता है। द्विगुणः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दु-उणो और बि-उणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दु-उणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' और 'ग्' का 1; 'व' का 'ब' समान श्रुति से; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर बि-उणा रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीयः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुइओ और बिइओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व'; 'त्'; और 'य'; का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का विकल्प से 'उ'; १-१०१ से द्वितीय 'ई' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन से पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय का 'ओ' होकर दुइओ रूप सिद्ध हो जाता है। "बिइओ' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५ में कर दी गई है। द्विजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' और 'ज्' का लोप; • और ३-२ प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'दिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। द्विरदः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दिरओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का और द्वितीय 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'दिरओ' रूप सिद्ध हो जाता है। द्विवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दो वयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से आदि 'व्' और 'च्' का लोप; १-९४ की वृति से 'इ' का 'ओ'; १-१८० से 'च' के शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दो-वयणं रूप सिद्ध हो जाता है। निमज्जति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप णुमज्जइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२२८ से 'न्' का 'ण'; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; और ३-३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'णुमज्जई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ निमग्नः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप णुमन्नो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२२८ से 'न्' का 'ण'; १-९४ से 'इ' का 'उ'; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से 'न' का द्वित्व 'न'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णुमन्नो' रूप सिद्ध हो जाता है। निपतति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप निवडइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२३१ से 'प' का 'व' ४-२१९ से पत् धातु के 'त्' का 'ड्'; और ३-१३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'निवडइ' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९४।। प्रवासीक्षौ ।। १-९५॥ अनयोरादेरित उत्वं भवति। पावासुओ। उच्छू।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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