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82 : प्राकृत व्याकरण
निर्सरति संस्कृत क्रिया है। इसका प्राकृत रूप नीसरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३ से 'निर्' के 'र' का लोप; १-९३ से आदि 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एकवचन 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर नीसरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वासः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप नीसासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३ से 'निर्' के 'र' का लोप; १-९३ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-१७७ से 'व' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर नीसासो रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्णयः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निण्णओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय लगकर निण्णओ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्सहानि संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निस्सहाइँ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'सद्वित्व'स्स': ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहवचन में नपंसकलिंग में 'जस' और 'शस' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'निस्सहाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
अंगाणि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अङ्गाइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में नपुसंकलिंग में 'जस्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'अंगाई रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९३।।
द्विन्योरूत्।। १-९४॥ द्विशब्दे नावुपसर्गे च इत उद् भवति।। द्वि। दुमतो। दुआई। दुविहो। दुरेहो। दु-वयण।। बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः।। दु-उणो। बि उणो॥ दुइओ। बिइओ।। क्वचिन भवति। द्विजः। दिओ।। द्विरदः दिरओ। क्वचिद् ओत्वमपि। दो वयण।। नि। णुमज्जइ। णुमत्रो।। क्वचिन्न भवति। निवडइ।। ___ अर्थ :-'द्वि' शब्द में और 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है। जैसे-'द्वि' के उदाहरण-द्विमात्रः दुमतो। द्विजातिः=दुआई। द्विविधः दुविहो। द्विरेफ:-दुरेहो। द्विवचनम्-दु-वयण।। 'बहुलम्' के अधिकार से कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द की 'इ' का 'उ' विकल्प से भी होता है। जैसे कि-द्विगुणः-दु-उणो और बि-उणो।। द्वितीयः-दुइओ और बिइओ।। कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द में रही हुई 'इ' में किसी भी प्रकार का कोई रूपान्तर नहीं होता है; जैसे कि-द्विजः-दिओ। द्विरदः=दिरओ।। कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द में रही हुई 'इ' का 'ओ' भी होता है। जैसे कि-द्वि-वचनम्=दो वयणं। 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं :-निमज्जति=णुमज्जइ। निमग्नः=णुमनो। कहीं कहीं पर 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' नहीं होता है। जैसे-निपतति-निवडइ।।
द्विमात्रः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुमत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुमत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विजातिः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-७७ से 'व्' और 'ज्' एवं 'त्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर दुआई रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विविधः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुविहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; १-१८७ से 'घ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुविहो रूप सिद्ध हो जाता है।
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