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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 81
=इअ जम्पिआवसाणे। इति विकसित-कुसुमशरः इअ विअसिअ-कुसुम-सरो।। मूल-सूत्र में वाक्य के आदि में ऐसा क्यों लिखा गया है? उतर-यदि यह 'इति' अव्यय वाक्य की आदि में नहीं होकर वाक्य में अन्य स्थान पर हो तो; उस अवस्था में 'ति' की 'इ' का 'अ' नहीं होता है। जैसे-प्रियः इति=पिओति। पुरू इति-पुरिसोति।। 'इअ की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है।
कथितावसाने संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जम्पिआवसाणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२ से 'कथ्' धातु के स्थान पर 'जम्प' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण' ३-११ सप्तमी विभक्ती के एकवचन में पुल्लिंग में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्पिआवसाणे रूप सिद्ध हो जाता है।
विकसित-कुसुम-शरः संस्कृत शब्द है। इनका प्राकृत रूप विअसिअ-कुसुम-सरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या -१७७ से 'विकसित' के 'क' और 'त्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर विअसिस-कुसुम-सरो रूप सिद्ध हो जाता है। पिओति और पुरिसोति की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है ।।१-९१।।
ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशविंशतो त्या।। १-९२।। जिह्वादिषु इकारस्य तिशब्देन सह ईर्भवति।। जीहा। सीहो। तीसा। वीसा।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति। सिंह-दत्तो। सिंह-राओ।।
अर्थ :-जिह्वा सिंह और त्रिंशत् शब्द में रही हुई 'इ' की 'ई होती है। तथा विंशति शब्द में 'ति' के साथ याने 'ति' का लोप होकर के 'इ' की 'ई होती है। जैसे-जिह्वा जीहा। सिंहः-सीहो। त्रिंशत्-तीसा। विंशतिः-वीसा।। बहुलाधिकार से कहीं कहीं . पर सिंह आदि शब्दों में 'इ' की 'ई' नहीं भी होती है। जैसे-सिंह-दत्तः सिंह-दत्तो। सिंह-राजः-सिंह-राओ।। इत्यादि।।
जिह्वा संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जीहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-९२ से 'इ' की 'ई'; १-१७७ से 'व्' का लोप; हे०२-४-१८ से स्त्रीलिंग आकारान्त में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीहा रूप सिद्ध हो जाता है।
सीहो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२९ में की गई है। तीसा और वीसा शब्दोंकी सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२८ में की गई है। सिंह-दत्तः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप सिंह-दत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर सिंह-दत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
सिंह-राजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिंह-राओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर सिंह-राओ रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९२।।
लुंकि निरः।। १-९३।। निर् उपसर्गस्य रेफलोपे सति इत ईकारो भवति।। नीसरइ। नीसासो॥ लुकीति किम्। निण्णओ। निस्सहाइँ अङ्गाई।। __अर्थ :-जिस शब्द में निर्' उपसर्ग हो; और ऐसे 'निर्' के 'र' का याने 'रेफ' का लोप होने पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' हो जाती है। जैसे-निर्सरति-नीसरइ। निश्र्वास नीसासो।। 'लुक' ऐसा क्यों कहा गया है। उतर- जिन शब्दों में इस सूत्र का उपयोग नहीं किया जायगा; वहाँ पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' नहीं होकर 'नि' के पर-वर्ती ब्यञ्जन का अन्य सूत्रानुसार द्वित्व हो जायगा। जैसे-निर्णयः निण्णओ। निसंहानि अङ्गानि निस्सहाइँ अङ्गाइं। इन उदाहरणों में व्यञ्जन का द्वित्व हो गया है।
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