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________________ 120 : प्राकृत व्याकरण वैतालिकः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप वइआलिओ और वेइआलिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ का आदेश; १-१७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वइआलिओ रुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप वेआलिओ में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों वेआलिओ रूप सिद्ध हुआ। __ वैशिकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसिअं और वेसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अइ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप वइसि सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप (वेसिअं) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों वेसिअंरूप सिद्ध हो जाता है। चैत्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चइत्तो और चेत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अइ' की प्राप्ति; २-७९ से' का लोप; २-८९ से'त' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चइत्ता सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (चेत्तो) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों चेत्तो रूप सिद्ध हुआ।।१-१५२।। एच्च दैवे ।। १-१५३।। देव शब्दे ऐत एत् अइश्र्चादेशो भवति।। देव्वं दइव्वं दइव।। अर्थः-'दैव' शब्द में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'ए' और 'अइ' का आदेश हुआ करता है। जैसे-देवम् देव्वं और दइव्वं। इसी प्रकार से दैवम् दइव।। देवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप देव्वं; दइव्वं और दइवं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-९९ से 'व' को विकल्प रूप से द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम देव्वं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप दइव्वं में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों दइव्वं रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप दइवं में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइवं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१५३।। उच्चैर्नीचस्यैअः ।। १-१५४ ॥ अनयोरेतः अअ इत्यादेशो भवति। उच्च नीची उच्चनीचाभ्याम् के सिद्धम्। उच्चैर्नीचैसोस्तु रूपान्तर निवृत्त्यर्थ वचनम्। अर्थः-उच्चैः और नीचैः इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'अअ' का आदेश होता है। जैसे-उच्चैः-उच्चअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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