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वैरादौ वा ।। १-१५२ ।।
वैरादिषु ऐतः अइरादेशो वा भवति । वरं वेरं । कइलासो केलासो । कइरवं केरवं । वइसवणो वेसवणो । वइसम्पायणो वेसम्पायणो । वइआलिओ वेआलिओ । वइसिअं वेसिअं । चइत्तो चेत्तो ॥ वैर । कैलास । कैरव। वैश्रवण । वैशम्पायन । वैतालिक। वैशिक । चैत्र । इत्यादि । ।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 119
अर्थः- वैर, कैलास, कैरव, वैश्रवण, वैशम्पायन, वैतालिक, वैशिक और चैत्र इत्यादि शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर विकल्प से 'अइ' आदेश भी होता है। आदेश के अभाव में शब्द के द्वितीय रूप में 'ऐ' के स्थान पर 'ए' भी होता है। जैसे - वैरम् - वइरं और वेरं । कैलासः = कइलासो और केलासो। कैरवम्= कइरवं और केरवं । वैश्रवणः- वइसवणो और वेसवणो । वैशम्पायनः = वइसम्पायणो और वेसम्पायणो । वैतालिक:- वइआलिओ और वेआलिओ | वैशिकम् = वइसिअं और वेसिअं । चैत्रः = चइतो और चेतो ।। इत्यादि ।।
वरं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६ में की गई है।
वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' का 'ए'; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वैरं रूप सिद्ध हो जाता है।
कैलासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कइलासो और केलासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कइलासो रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप केलास की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१४८ में की गई है।
कैरवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कइरवं और केरवं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप 'अइ' का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कइरवं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप केरवं में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप केरवं सिद्ध हो जाता है।
वैश्रवणः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसवणा और वेसवणा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; २-७९ से 'र्' का लोप; १ - २६० से शेष 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसवणो रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेसवणा में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष सिद्धि उपरोक्त वइसवणो के अनुसार होकर वसवणा रूप सिद्ध हो जाता है।
वैशम्पायनः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसम्पायणो और वेसम्पायणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; १ - २६० से 'श' का 'स'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वइसम्पायणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेसम्पायणा में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; होकर वेसम्पायणो रूप सिद्ध हुआ। शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना।
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