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118 : प्राकृत व्याकरण __ वैदेशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइएसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइएसो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैदेहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वइएहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइएहो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैदर्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइदब्भो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ का आदेश; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से प्राप्त 'भ' का द्वित्व 'भ्भ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'भ्' का 'ब'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइदब्भो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैश्वानरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइस्साणरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अड' का आदेश: २-७९ से'व' का लोप: १-२६० से 'श'का 'स':२-८९ से प्राप्त 'सका द्वित्व'स्स': १-२२८ से'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइस्साणरो रुप सिद्ध हो जाता है।
कैतवम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कइअवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर कइअवं रूप सिद्ध हो जाता है। __वैशाखः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइसाहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐं के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसाहो रुप सिद्ध हो जाता है। - वैशालः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप वइसालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२६० से प्राप्त पूर्व 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसालो रुप सिद्ध हो जाता है।
स्वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सइरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सइरं रूप सिद्ध हो जाता है।
चैत्यम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चइत्तं और चेइअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् प्रत्यय का अनुस्वार होकर चइत्तं प्रथम रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (चेइ) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; २-१०७ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर चेइअं रूप सिद्ध हो जाता है।
चैत्य वन्दनम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में ची-वन्दणं रूप भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ की वृत्ति से आर्ष-दृष्टि से 'चैत्य' के स्थान पर 'ची' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर ची-वन्दणं आर्ष-रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१५१।।
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