SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 117 सइरं। चइत।। दैत्या दैन्य। ऐश्वर्य। भैरव। वैजवन। दैवत। वैतालीय। वैदेश। वैदेह। वैदर्भ। वैश्वानर। केतवा वैशाख। वैशाल। स्वैर। चैत्य। इत्यादि। विश्लेषे न भवति। चैत्यम्। चेइ।। आर्षे। चैत्य वन्दनम्। ची-वन्दण। ___ अर्थः-सैन्य शब्द में और दैत्य, दैन्य, ऐश्वर्य, भैरव, वैजवन, दैवत, वैतालीय, वैदेह, वैदर्भ, वैश्वानर, कैतव, वैशाख, वैशाल, स्वैर, चैत्य इत्यादि शब्दों में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' ऐसा आदेश होता है। यह सूत्र-संख्या १-१४८ का अपवाद है। जैसे-सैन्यम्-सइन्न। दैत्यः-दइच्चो। दैन्यम्=दइन्न। ऐश्वर्यम् अइसरि। भैरवः=भइरवो। वैजवनः वइजवणो। दैवतम्=दइवा वैतालीयम्=वइआली। वैदेशः वइएसो। वैदेहः-वइएहो। वैदर्भः वइदब्भो। वैश्वानरः-वइस्साणरो। कैतवम् कइअवं। वैशाखः-वइसाहो। वैशालः वइसालो। स्वैरम् सइरं। चैत्यम्-चइत्तं। इत्यादि।। जिस शब्द में संधि-विच्छेद करके शब्द को स्वरसंयुक्त कर दिया जाय; तो उस शब्द में रहे हुए 'ऐ' की 'अइ' नहीं होती है। जैसे-चैत्यम् चेइ यहां पर 'चैत्यम्' शब्द में संधि विच्छेद करके 'चेतियम्' बना दिया गया है; इसलिये 'चैत्यम्' में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश नहीं करके सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' ही किया गया है। आर्ष-प्राकृत म'चत्य-वन्दनम् का 'ची-वन्दणं' भी होता है।। सैन्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सन्नं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ के स्थान पर 'अइ का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सइन्न रूप सिद्ध हो जाता है। दैत्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइच्चो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-१३ से 'त्य' का 'च'; २-८९ से प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दइच्चो रुप सिद्ध हो जाता है। दैन्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइन्नं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१५१ से 'ऐ के स्थान पर 'अई' का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइन्नं रूप सिद्ध हो जाता है। ऐश्वर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अइसरिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-७९ से 'व्' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; २-१०७ से 'र' में 'इ' का आगम; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर अइसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। भैरवः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भइरवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भइरवो रुप सिद्ध हो जाता हैं। वैजवनः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइजवणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइजवणो रुप सिद्ध हो जाता हैं। दैवतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइवअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइवरूप सिद्ध हो जाता है। वैतालीयम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वइआलीअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अई का आदेश; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वइआलीअंरूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy