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________________ 116 : प्राकृत व्याकरण कैलासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केलासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केलासो रुप सिद्ध हो जाता है। वैद्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; २-२४ से 'द्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेज्जो रुप सिद्ध हो जाता है। __कैटभः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केढवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-१९६ से 'ट' का 'ढ'; १-४० से 'भ' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केढवो रुप सिद्ध हो जाता है। वैधव्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेहव्वं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'व' का द्वित्व 'व्व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वेहव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४८।। इत्सैन्धव-शनैश्चरे ।। १-१४९ ।। एतयोरैत इत्वं भवति।। सिन्धवं। सणिच्छरो।। अर्थः-सैन्धव और शनैश्चर इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' की 'इ' होती है। जैसे-सैन्धवम् सिन्धवं और शनैश्चरः सणिच्छरो।। सैन्धवम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिन्धवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४९ से 'ऐ' का 'इ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सिन्धवं रूप सिद्ध हो जाता है। शनैश्चरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप सणिच्छरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१४९ से 'ऐ' का 'इ'; २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सणिच्छरो रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४९।। सैन्ये वा ॥ १-१५०॥ सैन्य शब्दे ऐत इद् वा भवति।। सिन्नं सेन्न।। अर्थः-सैन्य शब्द में रही हुई 'ऐ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-सैन्यम्-सिन्न।। सैन्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिन्नं और सेन्नं होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५० से 'ऐ' की विकल्प से 'इ' और १-१४८ से 'ए' की 'ए'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सिन्नं और सेनं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१५०।। अइदैत्यादौ च ॥ १-१५१ ।। सैन्य शब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतो अइ इत्यादेशो भवति। एत्वापवादः।। सइन्न। दइचचो। दइन्न। अइसरिओ भइरवो। वइजवणो। दइव वइआली वइएसो वइएहो। वइदब्मो। वइस्साणरो। कइअवं। वइसाहो। वइसालो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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