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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 121 और नीचैः=नीचअं।। उच्चैः और नीचैः शब्दों की सिद्धि कैसे होती है इस प्रश्न के दृष्टिकोण से ही यह बतलाना है कि इन दोनों शब्दों के अन्य रूप नहीं होते है; क्योंकि ये अव्यय है अतः अन्य विभक्तियों में इनके रूप नहीं बनते हैं। उच्चैस संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप उच्च होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अअ' का आदेश १-२४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उच्च रूप सिद्ध हो जाता है। नीचैम् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप निचअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५४ से 'ऐं' के स्थान पर 'अअ' का आदेश १- २४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नीचअं रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - १५४ ॥ ईद्धैर्ये ।। १-१५५ ।। धैर्य शब्दे ऐत ईद् भवति ।। धीरं हरइ विसाओ ।। अर्थः- धैर्य शब्द में रही हुई 'ऐ' की 'ई' होती है। जैसे- धैर्यं हरति विषादः = धीरं हरइ विसाओ ।। : धैर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धीरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५५ से 'ऐ' की 'ई'; २-६४ से 'र्य' का विकल्प से 'र'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'अम्' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर धीरं रूप सिद्ध हो जाता है। हरति संस्कृत सकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप हरइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरइ रूप सिद्ध हो जाता है। विषादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप विसाओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसाओ रुप सिद्ध हो जाता है । । १ - १५५ ।। ओतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठाताद्य-शिरोवेदना-मनोहर - सरोरूहेक्तोश्च वः ।।१-१५६ ।। एषु ओतोत्त्वं वा भवति तत्संनियोगे च यथा संभवं ककार तकारयोर्वादेशः ।। अन्नन्नं अन्नुन्नं । पवट्टो पउट्टो | आवज्जं आउज्जं । सिर विअणा सिरो-विअणा । मणहरं मणोहरं । सररूहं सरोरुहं ॥ अर्थः-अन्योन्य, प्रकोष्ठ, आतोय, शिरोवेदना, मनोहर और सरोरूह में रहे हुए 'ओ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है; और 'अ' होने की दशा में यदि प्राप्त हुए उस 'अ' के साथ 'क्' वर्ण अथवा 'त्' वर्ण जुडा हुआ हो तो उस 'क्' अथवा उस ' त् के स्थान पर 'व्' वर्ण का आदेश हो जाया करता है जैसे- अन्योन्यम् - अन्नन्नं अथवा अन्नन्नं। प्रकोष्टः=पवो और पउट्ठो। आतोद्यं - आवज्जं और आउज्जं । शिरोवेदना - सिर- विअणा और सिरो-विअणा । मनोहरम् मणहरं और मणोहरं । सरोरूहम्-सर-रूहं और सरोरुहं ।। अन्योन्यम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप अन्नन्नं और अन्नुन्नं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-७८ से दोनों 'य्' का लोप; २-८९ से शेष दोनों 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; १ - १५६ से 'ओ' का विकल्प से 'अ'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप अन्नन्नं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (अन्नुन्न) में सूत्र - संख्या १ - १५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' के स्थान पर 'अ' नहीं होकर 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यों अन्नुन्नं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रकोष्ठः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पवट्टो और पउट्ठो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २- ७९ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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