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________________ 122 : प्राकृत व्याकरण 'र' का लोप; १-१५६ से 'ओ' का 'अ'; १-१५६ से ही 'क्' को 'व' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'' को 'ट्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पवट्ठो रुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (पउटो) में सूत्र-संख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक-पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों पउट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है। आतोद्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप आवज्जं और आउज्जं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५६ से 'ओ' को 'अ' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'त्' के स्थान पर 'व' का आदेश; २-२४ से 'द्य' को 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप आवज रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (आउज्ज) में सूत्र-संख्या १–१५६ के अभाव में वैकल्पिक-पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों आउज्जं सिद्ध हुआ। शिरोवेदना संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिरविअणा और सिरोविअणा होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१४६ से 'ए' को 'इ'; की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; संस्कृत-विधान से स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इस 'सि' में स्थित 'इ' की इत् संज्ञा और सूत्र-संख्या १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर सिरविअणा और सिरोविअणा दोनों ही रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। मनोहरम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मणहरं और मणोहरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ वैकल्पिक रूप से 'ओ' का 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप मणहरं और मणोहरं सिद्ध हो जाते हैं। सरोरूहम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सररूहं और सरोरुहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' का 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप प्रथम सररूहं और सरोरुह सिद्ध हो जाते हैं।।१५६॥ ऊत्सोच्छ्वासे ।। १-१५७ ।। सोच्छ्वास शब्दे ओत ऊद् भवति।। सोच्छ्वासः । सूसासो। अथ:-सोच्छ्वास शब्द में रहे हुए 'ओ' को 'ऊ' की प्राप्ति होती है। जैसे-सोच्छ्वासः सूसासो।। सोच्छ्वासः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सूसासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५७ से 'ओ' को 'ऊ' की प्राप्ति; 'च्छवा' शब्दांश का निर्माण संस्कृत-व्याकरण की संधि के नियमों के अनुसार 'श्वा' शब्दांश से हुआ है; अतः २-'७९ से 'व्' का लोप; १-६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सूसासा रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१५७।। गव्यउ-आअः ॥ १-१५८ ।। गो शब्दे ओतः अउ आअ इत्यादेशौ भवतः।। गउओ। गउआ। गाओ।। हरस्स एसा गाई।। • अर्थः-गो शब्द में रहे हुए 'ओ' के स्थान पर क्रम से 'अउ' और 'आअ का आदेश हुआ करता है। जैसे-गवयः गउओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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