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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 237 'हस्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २-८९से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'स्तुतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थुई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'थुइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्तोत्रम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थोत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। __'स्तोकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थोअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से क् का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थो रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'प्रस्तरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पत्थरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पत्थरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'प्रशस्तः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पसत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पसत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अस्ति' संस्कृत क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति होकर 'अत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्वस्तिः ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सत्थि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्' के स्थान पर 'थ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ्' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'सत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'समाप्तः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'समत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्तम्बः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तम्बो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तम्बो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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