SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 238 : प्राकृत व्याकरण स्तवे वा ।। २-४६।। स्तव शब्दे स्तस्य थो वा भवति ।। थवो तवो । अर्थः- 'स्तव' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्तवः=थवो अथवा तवो।। ___ 'स्तवः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थवो' और 'तवो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थवो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर 'तवो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४६।। पर्यस्ते थ-टौ ।। २-४७।। पर्यस्ते स्तस्य पर्यायेण थटौ भवतः ।। पल्लत्थो पल्लट्टो ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर्यस्त' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर कभी 'थ' होता है और कभी 'ट' होता है। यों पर्यस्त के प्राकृत रूपान्तर दो प्रकार के होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- पर्यस्तः=पल्लत्थो और पल्लट्टो।। __'पर्यस्तः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'पल्लत्थो' और 'पल्लट्रो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर पर्याय रूप से 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर, प्रथम रूप 'पल्लत्थो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'पल्लट्टो' में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर पर्याय रूप से 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पल्लट्टो' भी सिद्ध हो जाता है। ।।२-४७।। वोत्साहे थो हश्च रः ।। २-४८।। उत्साह शब्दे संयुक्तस्य थो वा भवति तत्सनियोगे च हस्य रः।। उत्थारो उच्छाहो।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'उत्साह' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति होती है। एवं 'थ' की प्राप्ति होने पर ही अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति हो जाती है। पक्षान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति नहीं होने की दशा में अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः उत्साहः उत्थारो और पक्षान्तर में उच्छाहो। यों रूप-भिन्नता का स्वरूप समझ लेना चाहिये।। __ "उत्साहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उत्थारो' और 'उच्छाहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर प्राप्त थ' का संनियोग होने से अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'उत्थारो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'उच्छाहो' की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है। ।। २-४८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy