SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाले रेफ रूप 'र' और 'ह' के द्विर्भाव नहीं होने की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ५७ में की गई है। बम्हचे रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५९ में की गई है। 'पर्यन्तम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेरन्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ५८ से 'प' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-६५ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' रूप ओदश की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पेरन्तं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'विह्वल : ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विहलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विहला' रूप सिद्ध हो जाता है। कहावणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७१ में की गई है । ।। २-९३ ।। धृष्टद्युम्ने णः ।। २- ९४॥ धृष्टद्युम्न शब्दे आदेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति ॥ धट्टज्जुणो ॥ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 273 अर्थः- संस्कृत शब्द धृष्टद्युम्नः के प्राकृत रूपान्तर धट्ठज्जुणो में संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होने पर इस आदेश प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- धृष्टद्युम्नः - धट्टज्जुणो ।। 'धृष्टद्युम्नः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धट्टज्जुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'घ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २- ४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धट्ठज्जुणो' रूप की सिद्धि हो जाती है । ।। २-९४ ।। कर्णिकारे वा ।। २-९५।। कर्णिकार शब्दे शेषस्य णस्य द्वित्वं वा न भवति ।। कणिआरो कण्णिआरो ।। अर्थः- संस्कृत शब्द कर्णिकार के प्राकृत रूपान्तर में प्रथम रेफ रूप 'र्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति विकल्प से होती है। कभी हो जाती है और कभी नहीं होती है। जैसे:- कर्णिकारः = कणिआरो अथवा कण्णिआरो।। 'कर्णिकारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कणिआरो' और 'कण्णिआरो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कणिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'कण्णिआरो' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १६८ में की गई है। ।। २-९५।। दृप्ते ।। २-९६।। दृप्त शब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति ।। दरिअ - सीहेण ॥ अर्थः- संस्कृत शब्द 'दृप्त' के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार 'प्' और 'त्' व्यञ्जन का लोप हो जाने के पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy