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________________ 274 : प्राकृत व्याकरण शेष वर्ण को द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः-दृप्त-सिंहेन-दरिअ-सीहेण।। दरिअ-सीहेण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४४ में की गई है। ।। २-९६।। समासे वा ॥ २-९७॥ शेषादेशयोः समासे द्वित्वं वा भवति।। नइ-ग्गामो, नइ-गामो। कुसुमप्पयरो कुसुम-पयरो। देव-त्थुई देव-थुई। हर-क्खन्दा हर-खन्दा। आणाल-क्खम्भो आणाल-खम्भो।। बहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि। स-प्पिवासो स-पिवासो। बद्धप्फलो बद्ध-फलो। मलय-सिहर-क्खण्डं मलय-सिहर-खण्डं। पम्मुक्कं पमुक्क। अइंसणं अदंसणं। पडिकूलं पडिक्कूलं। तेल्लोकं तेलोक्कं इत्यादि।। अर्थः-संस्कृत समासगत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए अथवा आदेश रूप से प्राप्त हुए वर्णों को द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। अर्थात् समासगत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से रहे हुए वर्णो का द्वित्व विकल्प से हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:- नदी-ग्रामः नइ-ग्गामो अथवा नइ-गामो।। कुसुम-प्रकरः कुसुम-प्पयरो अथवा कुसुम-पयरो।। देवः-स्तुतिः-देव-त्थुई अथवा देव-थुई।। हर-स्कंदौ-हर-क्खन्दा अथवा हर-खन्दा।। आलान-स्तम्भः-आणाल-क्खम्भो अथवा आणाल-खम्भो।। "बहुलम्" सूत्र के अधिकार से समासगत प्राकृत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से नहीं प्राप्त हुए वर्णों को भी अर्थात् शब्द में प्रकृति रूप से रहे हुए वर्णो को भी विकल्प से द्वित्व स्थिति प्राप्त हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि समासगत-शब्दों में शेष रूप स्थिति से रहित अथवा आदेश रूप स्थिति से रहित वर्णों को भी द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- स पिपासः सप्पिवासो अथवा स-पिवासो।। बद्ध-फलः बद्धप्फलो अथवा बद्ध-फलो।। मलय-शिखर-खण्डम्=मलय-सिहर-क्खण्डं अथवा मलय-सिहर-खण्ड।। प्रमुक्तम्=पम्मुक्कं अथवा पमुक्क।। अदर्शनम् असणं अथवा अदसणं।। प्रतिकूलम्=पडिकूलं अथवा पडिक्कूलं और त्रैलोक्यम्-तेल्लोकं अथवा तेलोक्कं इत्यादि।। इन उदाहरणों में द्वि-र्भाव स्थिति विकल्प से पाई जाती है; यों अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिये।। 'नदी-ग्रामः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नइ-ग्गामो' और 'नइ-गामा' होते हैं। इनमें से सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-९७ से 'ग' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'नइ-ग्गामो' और 'नइ-गामा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'कुसुम-प्रकरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कुसुमप्पयरो' और 'कुसुम-पयरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-६९ से शेष 'प' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'कसम-प्पयरो' और 'कसम-पयरा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'देव-स्तुतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'देव-त्थुई' और 'देव-थुइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति: २-९७ से प्राप्त 'थ' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व'थुथ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से 'देवत्थुई और 'देव-थुई' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'हर-स्कंदौ' द्विवचनान्त संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हरक्खन्दा' और 'हर-खन्दा' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-९७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-१३० से संस्कृत शब्दांत द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति होने से सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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