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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 275 और ३-१२ से पूर्व में प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' के कारण से अन्त्य व्यञ्जन 'द' में स्थित हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'हर-क्खन्दा' और 'हर-खन्दा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'आलान-स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आणाल-खम्भो' और 'आणाल-खम्भो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' और 'न' का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट रूप से पारस्परिक स्थान परिवर्तन; १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ख' का आदेश; २-९७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'आणाल-क्खम्भा' और 'आणाल-खम्भो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। __ 'स-पिपासः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सप्पिवासो' और सपिवासो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से प्रथम 'प' वर्ण को विकल्प से द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' वर्ण के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'सप्पिवासा और 'सपिवासो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'बद्ध-फलः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बद्ध-प्फलो' और 'बद्ध-फलो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से 'फ' वर्ण को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'बद्ध-प्फलो' और 'बद्ध-फलो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। _'मलय-शिखर-खण्डम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मलय सिहर-क्खण्ड' और 'मलय-सिहर-खण्ड' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से प्रथम 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-९७ से द्वितीय 'ख' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व "ख" की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त द्वित्व 'ख्ख' में से पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय
की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनस्वार होकर क्रम से 'मलय सिहर-क्खण्डं और 'मलय-सिहर-खण्डं' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ 'प्रमुक्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पम्मुक्क' और 'पमुक्क' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९७ से 'म्' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; २-२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पम्मुक्कं और पमुक्क' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'अदर्शनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अइंसणं' और 'अदंसणं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से 'द' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त द्वित्व 'द' अथवा 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'अइंसणं' और 'अदंसणं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'प्रतिकूलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पडिक्कूल' और 'पडिकूलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-९७ से 'क' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पडिक्कूलं' और 'पडिकूलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
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