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________________ 44: प्राकृत व्याकरण 'कमल' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कमला' और 'कमलाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से अतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'कमला' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अंतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कमलाई रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३।। गुणाद्याः क्लीबे वा ।। १-३४॥ गुणादयः क्लीबे वा प्रयोक्तव्याः।। गुणाई गुणा।। विहवेहिं गुणाई मग्गन्ति। देवाणि देवा। बिन्दूई। बिन्दुणो। खग्गं खग्गो। मण्डलग्गं मण्डलग्गो। कररूहं कररूहो। रुक्खाइं रुक्खा। इत्यादि।। इति गुणादयः॥ अर्थः- 'गण' इत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में और पुल्लिंग में प्रयुक्त किये जाने चाहिये। जैसे 'गुणाई' और 'गुणा से रूक्खाइं और 'रुक्खा ' तक जानना। इनमें पूर्व पद नपुंसकलिंग में है और उत्तर पद पुल्लिंग में प्रयुक्त किया गया है। 'गुणा' पद की १-११ में सिद्धि की गई है और १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकलिंगत्व होने पर ३-२६ से अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गुणाई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ विभवैः' संस्कृत पद है। इसका प्राकृत रूप 'विहवेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; ३-७ से तृतीया बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर 'हिं होता है। ३-१५ से अन्त्य 'व' के 'अ' का 'ए' होकर 'विहवेहि' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'गुणाई शब्द की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। विशेषता यह है कि 'ई' के स्थान पर यहा पर 'ई' प्रत्यय है। जो कि सूत्र संख्या ३-२६ के समान स्थिति वाला ही है। 'मृगयन्ते संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'मग्गन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' का द्वित्व 'ग्ग'; ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन के प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय का आदेश होकर 'मग्गन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। "देवाः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'देवाणि' और 'देवा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति; होकर 'देवाणि' रूप सिद्ध होता है। जब देव शब्द पुल्लिंग में होता है; तब ३-४ से 'जस्-शस्' का लोप होकर एवं ३-१२ से अन्त्य स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'देवा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'बिन्दवः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'बिन्दूई' और 'बिन्दुणो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिन्दूई रूप सिद्ध हो जाता है। जब बिन्दु शब्द पुल्लिंगत्व में होता है; तब ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'णो' आदेश होकर 'बिन्दुणो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'खड्गः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'खग्ग' और 'खग्गो' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-२७७ से 'ड्का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२५ से प्रथमा एकवचन नपुंसकलिंग में 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खग्गं रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिंग में होता है; तब ३-२ से प्रथमा एकवचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'खग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मंडलानः' संस्कृत शब्द है; इसके प्राकृत रूप 'मण्डलग्ग' और 'मण्डलग्गो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकत्व की प्राप्ति होने से ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मण्डलग्गं रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिगत्व होता है तब ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'मण्डलग्गो रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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