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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 43 से 'जस्-शस्' याने प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोप; ३-१२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर 'वयणा' रूप सिद्ध हो जाता है। एवं जब पुल्लिंग नहीं होकर नपुंसकलिंग हो तो ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'वयणाई रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'विद्युत् मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'विज्जुणा' और 'विज्जूए' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'ध' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; १-११ से अन्त्य 'त्' का लोप: १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगता की प्राप्ति; ३-२४ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' की प्राप्ति होकर 'विज्जुणा' शब्द की सिद्धि हो जाती है। एवं स्त्रीलिंग होने की दशा में ३-२९ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' आदेश; एवं 'ज्जु के हस्व 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'विज्जूए' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कुल' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कुलो' और 'कुलं' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'कुलो' रूप सिद्ध हो जाता है। और १-३३ से 'नपुंसक' होने पर ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'कुलं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'छन्दस्' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'छन्दो' और 'छन्द होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१ से 'स्' का लोप; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिंगता की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'छन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है और नपुंसक होने पर ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'छन्द रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'माहात्म्य' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'माहप्पो' और 'माहप्पं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'हा' के 'आ' का 'अ'; २-७८ से 'य' का लोप; २-५१ से 'त्म' का आदेश 'प'; २-८९ से प्राप्त 'प' का द्वित्व 'प्प';१-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगता का निर्धारण; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर 'माहप्पो' रूप
जाता है और १-३३ से नपुंसक विकल्प रूप से होने पर ३-२५ से 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय; एवं १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'माहप्पं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'दुःख' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'दुक्खा' और 'दुक्खाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१३ से दुर् के '' का अर्थात् विसर्ग का लोप; २-८९ से 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से दीर्घता प्राप्त होकर 'दुक्खा रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकता के विकल्प में ३-२६ से अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दुक्खाई रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भाजन' मूल संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भायणा' और 'भायणाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से अंतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'भायणा' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भायणाई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'नेत्र' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'नेत्ता' और 'नेत्ताइं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से अंतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'नेत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अंतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नेत्ताई रूप सिद्ध हो जाता है।
सिद्ध ह
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