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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 165 का 'ड' हुआ है।। आर्ष-प्राकृत में भी 'त' के स्थान पर 'ड' होता हुआ देखा जाता है। जैसे:-दुष्कृतम्-दुक्कड।। सुकृतम् सुकडं। आहृतम् आहडं।। अवहतम् अवहड।। इत्यादि।। अनेक शब्दों में ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृत रूपान्तर से प्राकृत रूपान्तर में 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती हुई नही देखी जाती है। इसी नियम को आचार्य हेमचन्द्र ने इसी सूत्र की वृत्ति में प्रायः शब्द का उल्लेख करके प्रदर्शित किया है। जैसे:-प्रतिसमयम्=पइसमय।। प्रतीपम्-पईवं।। संप्रति-संपइ।। प्रतिष्ठानम्=पइट्टाणं।। प्रतिष्ठा पइट्टा।। प्रतिज्ञा=पइण्णा।। इत्यादि।।
प्रतिपन्नमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिवन्नं होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप: १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडिवन्नं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिभासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान 'ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पडिहासो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिहारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिहारो रूप सिद्ध हो जाता है।
पडिप्फद्धी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है।
प्रतिसारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिसारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यये की प्राप्ति होकर पडिसारो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिनिवृतम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिनिअत्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-१२६ से शेष 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडिनिअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप और १-२०६ से - 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होकर पडिमा रूप सिद्ध हो जाता है।
पडिवया रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। पडंसुआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है।
प्रतिकरोति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिकरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ४-२३४ से करो' क्रिया के मूल रूप 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर्' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त 'अर्' में स्थित हलन्त 'र' में 'अ' रूप आगम की प्राप्ति;
और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिकरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
पहुडि रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-१३२ में की गई है। पाहुडं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है। व्यापृतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप वावडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप;
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