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________________ 164 : प्राकृत व्याकरण अर्थः-वेणु शब्द में स्थित 'ण' का विकल्प से 'ल' होता है। जैसेः-वेणुः वेलू अथवा वेणू।। वेणुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०३ से 'ण' के स्थान पर विकल्प से 'ल' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर वेलू और वेणू रूप सिद्ध हो जाते हैं।। १-२०३।। तुच्छे तश्च-छौ वा।। १-२०४।। तुच्छ शब्दे तस्य च छ इत्यादेसौ वा भवतः।। चुच्छं। छुच्छं। तुच्छं।। अर्थः-तुच्छ शब्द में स्थित 'त्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'च' अथवा 'छ' का आदेश होता है। जैसे:-तुच्छम्:-चुच्छं अथवा छुच्छं अथवा तुच्छं।। तुच्छम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप चुच्छं; छुच्छं और तुच्छं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२०४ से 'त्' के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'च' अथवा 'छ्' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से चुच्छं; छुच्छं और तुच्छं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।। १-२०४।। तगर-त्रसर-तुवरे टः।। १-२०५।। एषु तस्य टो भवति।। टगरो। टसरो। टूवरो।। अर्थ:-तगर, त्रसर और तूवर शब्दों में स्थित 'त' का 'ट' होता है। जैसे:-तगरः-टगरो; त्रसरः-टसरो और तूवरः-टूवरो।। तगरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टगरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टगरो रूप सिद्ध हो जाता है। त्रसरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टसरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०५ से शेष 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टसरो रूप सिद्ध हो जाता है। तूवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टूवरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टूवरा रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२०५।। प्रत्यादौ डः।। १-२०६॥ प्रत्यादिषु तस्य डो भवति।। पडिवन्न। पडिहासो। पडिहारो। पाडिप्फद्धी। पडिसारो पडिनिअत्तं। पडिमा। पडिवया। पडंसुआ। पडिकरइ। पहुडि। पाहुडं। वावडो। पडाया। वहेडओ। हरडई। मडय।। आर्षे। दुष्कृतम्। दुक्कड।। सुकृतम्। सुकड।। आहतमा आहडं। अवहतम्। अवहडं। इत्यादि।। प्राय इत्येव। प्रति समयम्।। पइ समय।। प्रतीपम्। पईवं।। संप्रति। संपइ।। प्रतिष्ठानम्। पइट्ठाण।। प्रतिष्ठा। पइट्ठा।। प्रतिज्ञा। पइण्णा।। प्रति। प्रभृति। प्राभृत। व्यापृत। पताका। बिभीतक। हरीतकी। मृतक। इत्यादि।। अर्थः-प्रति आदि उपसर्गो में स्थित 'त' का 'ड' होता है। जैसेः-प्रतिपन्नं पडिवन्न।। प्रतिभासः पडिहासो।। प्रतिहारः= पडिहारो; प्रतिस्पर्द्धिः पाडिप्फद्धी।। प्रतिसारः-पडिसारो।। प्रतिनिवृत्तम्=पडिनिअत्तं।। प्रतिमा-पडिमा।। प्रतिपदा=पडिवया।। प्रतिश्रुत्=पडंसुआ।। प्रतिकरोति-पडिकरइ।। इस प्रकार 'प्रति' के उदाहरण जानना। प्रभृति पहुडि।। प्राभृतम्=पाहुडं।। व्यापृत-वावडो।। पताका-पडाया।। विभीतकः बहेडओ।। हरीतकी-हरडई।। मृतकम् मडय।। इन उदाहरणों में भी 'त' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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