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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 189 'मधु-यष्टिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महु-लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह' और शेष सिद्धि उपरोक्त लट्टी के समान ही होकर 'महु-लट्ठी' रूप की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२४७।। वोत्तरीयानीय-तीय कृद्ये ज्जः ॥१-२४८।। उत्तरीय शब्दे अनीयतीय कृद्य प्रत्ययेषु च यस्य द्विरुक्तो जो वा भवति ।। उत्तरिज्जं उत्तरीअं ।। अनीय ।। करणिज्ज-करणीअं ।। विम्हयणिज्जं विम्हयणीअं॥ जवणिज्ज । जवणीअं । तीय । बिइज्जो बीओ ।। कृद्य । पेज्जा पेआ । अर्थः- "उत्तरीय' शब्द में और जिन शब्दों में अनीय', अथवा 'तीय' अथवा कृदन्त वाचक 'य' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुआ हो तो इनमें रहे हुए 'य' वर्ण का द्वित्व 'ज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-उत्तरीयम-उत्तरिज्जं अथवा उत्तरी। 'अनीय' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण इस प्रकार हैं:- करणीयम् करणिज्ज अथवा करणीअं॥ विस्मयनीयम्-विम्हयणिज्जं अथवा विम्हयणीअं । यापनीयम् जवणिज्जं अथवा जवणीअं ।। 'तीय' प्रत्यय का उदाहरणः- द्वितीय-बिइज्जो अथवा बीओ।। कृदन्त वाचक 'य' प्रत्यय का उदाहरण:- पेया-पेज्जा अथवा पेआ।। उपरोक्त सभी उदाहरणों में 'य' वर्ण को द्वित्व 'ज्ज' की विकल्प से प्राप्ति हुई है। 'उत्तरीयम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उत्तरिज्ज' अथवा 'उत्तरीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उत्तरिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'य्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'उत्तरीअं रूप जानना। ___ 'करणीयम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप करणिज्जं अथवा करणीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'करणिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'करणी' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होती है।। ___ 'विस्मयनीयम' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विम्हयणिज्ज अथवा' 'विम्हयणीअ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से द्वितीय 'य' को विकल्प से द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'विम्हयणिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'विम्हयणीअं जानना। 'यापनीयम' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जवणिज्ज' अथवा' 'जवणीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ से आदि 'य' को 'ज' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व, 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से वैकल्पिक रूप से द्वितीय 'य' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'जवणिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर 'जवणीअं रूप सिद्ध हो जाता है। "द्वितीयः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'बिइज्जा' और 'बीआ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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